नए वर्ष में नई राजनीति की मांग

06 Jan 2025 15:53:34

Alekha
भारतीय गणतंत्र अपनी 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। इस गणतंत्रात्मक प्रौढ़ता की अपेक्षा है कि हमारा लोकतंत्र भी उसी के अनुरूप परिपक्वता दिखाए। हमारे लोकतंत्र में एक विरोधाभास दिखता है। पश्चिमी विद्वानों की शंकाओं के विपरीत जनता की लोकतांत्रिक आस्थाएं तो दृढ़ बनी हुई हैं, लेकिन लोकतंत्र के संवाहक राजनीतिक दलों और नेताओं को अभी उन लोकतांत्रिक आस्थाओं से समरस होना है। परिणामस्वरूप लोकतंत्र को अनेक विसंगतियों ने जकड़ लिया है। नए वर्ष में स्वयं को बेहतर बनाने हेतु हम व्यक्तिगत संकल्प लेते हैं, लेकिन अपने लोकतंत्र को और बेहतर बनाने हेतु हमें सामूहिक संकल्प लेना है। हमें नई राजनीति की ओर कदम बढ़ाना है। संविधान सभा में 25 नवंबर, 1949 को अपने अंतिम भाषण में संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. आंबेडकर ने इस अंतर्विरोध की ओर इंगित करते हुए आगाह किया था कि सामाजिक समरसता और बंधुत्व हेतु लोकतंत्र को सामंतवादी मानसिकता से न चलाया जाए, मगर राजनीतिक दल और नेता सामंतवादी मानसिकता से नहीं निकल सके हैं। उन्हें अपने स्वजन ही उत्तराधिकारी के रूप में विश्वसनीय लगते हैं। लोकतंत्र में विविधता और विरोध का स्थान है, लेकिन विद्वेष का नहीं।
 
Alekha
लोकतंत्र विविध विचारधाराओं के आधार पर राजनीति करने वाले दलों और नेताओं को मान्यता देता है। गांधीजी के नेतृत्व में हमें स्वतंत्रता मिली, लेकिन सुभाष चंद्र बोस और उनके नेतृत्व में संघर्ष करने वालों तथा अन्य बलिदानियों के योगदान को कमतर तो नहीं आंका जा सकता। कांग्रेसी विचारधारा को प्रारंभिक राजनीतिक स्पर्धा में लाभ मिला। वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारधाराएं उपेक्षित हो गईं, लेकिन उससे उनका महत्व नहीं घटा। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के वामपंथी रूझान के कारण कांग्रेस वामपंथ की ओर झुकी, लेकिन फिर देश ने कांग्रेस और वामपंथ, दोनों को दरकिनार कर दक्षिणपंथ को सत्ता सौंपी। हमें उसे स्वीकार करना पड़ेगा। यही परिपक्व लोकतांत्रिक राजनीति का तकाजा है। आज राजनीतिक स्पर्धा में विचारधाराओं की जगह जातीय अस्मिताएं प्रभावी होकर लोकतांत्रिक संस्कृक्ति को विकृत कर रही हैं, जो सामाजिक समरसता को भी दुष्प्रभावित करती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 से 'सबका साथ सबका विकास' मंत्र से जातीय अस्मिताओं की पकड़ जकड़ को दरकिनार कर समाज को जातीय राजनीति से वर्गीय राजनीति की ओर उन्मुख किया। इससे भारतीय लोकतंत्र समावेशी राजनीति की ओर बढ़ा है। इसका लाभ उन्हें मिला और लगातार तीसरी बार सरकार बना कर उन्होंने इतिहास रच दिया। भाजपा की दक्षिणपंथी विचारधारा से किसी का विरोध पूर्णतः संविधानसम्मत है, पर संविधान मोदी या भाजपा से विद्वेष को मान्यता नहीं देता। नए वर्ष में इस मर्म को सभी राजनीतिज्ञों को समझना होगा।
 
भारतीय राजनीति में प्रायः हिंदू मुस्लिम द्वैधता की चर्चा होती है। दल एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं। जो दल और नेता दूसरे दलों और उनके नेताओं पर धार्मिक ध्रुवीकरण का आरोप लगाते हैं, वे स्वयं भी धार्मिक आधार पर राजनीतिक समर्थन की मांग करते दिखते हैं। हिंदू-मुस्लिम के आधार पर देश-विभाजन की जिम्मेदारी से कांग्रेस बच नहीं सकती। इसी के साथ इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसने भारतीय मुसलमानों को हिंदू समाज में समरस होने देने के बजाय उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में उनसे काट दिया और राजनीतिक लाभ के लिए उनके तुष्टीकरण की नीति अपनाई। इससे मुसलमानों और कांग्रेस, दोनों को नुकसान हुआ। कांग्रेस की इस नीति से अधिकतर मुसलमान हिंदुओं को अपना विरोधी समझने लगे, जबकि कांग्रेस और अन्य ऐसे राजनीतिक दलों में हिंदू ही हैं। यह ध्यान रहे कि तुष्टीकरण की नीति से कभी भी किसी पक्ष को पूर्णतः संतुष्ट नहीं किया जा सकता। उसकी मांग सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जाती है, जिसे न पूरा करने पर दल और राजनीतिज्ञ उनका विश्वास खोते हैं। यह स्थिति समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण को भी जन्म देती है। एक समय था जब हिंदू-मुस्लिम सौहार्द एक वास्तविकता थी। आज अपवादों को छोड़कर वह सामाजिक सौहार्द दिखाई नहीं देता। दोनों एक-दूसरे से कट गए हैं।
 
आज हमारे लोकतंत्र पर अपराधियों और धनाढ्‌यों का आधिपत्य हो गया है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर प्रत्याशियों का हलफनामा देखने पर हैरत होती है कि किस सामाजिक प्रोफाइल के लोग जनता के प्रतिनिधि होने के दावेदार हैं और वह भी बड़े राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों के रूप में। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि वर्तमान लोकसभा में 95 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं और 251 सदस्यों पर अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं? क्या राजनीतिक दल भूल गए हैं कि इस देश में साफ-सुथरे, गरीब आम आदमी भी रहते हैं, जिनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हो सकती हैं। क्या कभी उन्हें भी मौका मिलेगा? क्या नए वर्ष में राजनीतिक दल यह संकल्प लेंगे कि अपराधियों और धनाढ्‌यों की जगह आम और योग्य लोगों को राजनीति में प्राथमिकता देनी चाहिए? ऐसे अनेक सवाल भारतीय लोकतंत्र को घेरे हुए हैं। इसका एक कारण यह है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का नितांत अभाव है और अधिकतर दल सामंतवादी संस्कृक्ति से चल रहे हैं। यह भी एक तथ्य है कि आज विभिन्न राष्ट्रीय और प्रांतीय दलों में पारस्परिक संवाद और सद्भाव का अभाव है। इससे लोकतंत्र को और बेहतर बनाने के लिए उनमें कोई पारस्परिक विमर्श नहीं हो पा रहा है। इसके स्थान पर केवल एक-दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप लगाने तथा विचार, भाषा और व्यवहार के निम्नतर स्तर को प्रदर्शित करने की जैसे स्पर्धा हो रही है। क्या नए वर्ष में सभी राजनीतिक दल और साथ ही आम जनता एक नई शुरूआत, एक नई राजनीति का संकल्प लेगी? क्या गणतंत्र की 75वीं वर्षगांठ पर हम सभी नई राजनीतिक संस्कृति से ओतप्रोत एक नए लोकतंत्र की शुरूआत करेंगे?
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