फर्जी खबरों से निपटने की कठिन चुनौती

इंटरनेट मीडिया पर शरारत के जरिये माहौल बिगाड़ने के कई उदाहरण हैं इसका मुकाबला केवल पारंपरिक मीडिया कर सकता है...

Pratahkal    17-Jan-2025
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aalekha
फेसबुक इंस्टाग्राम और वाट्सएप, की प्रवर्तक कंपनी मेटा ने हाल में एलान किया कि वह अपने थर्ड पार्टी फैक्ट चेकिंग कार्यक्रम की बंद कर रही है। मेटा भी अब एक्स (पूर्ववर्ती ट्विटर) जैसी 'कम्युनिटी नोट्स' बाली प्रणाली अपनाएगी। मेटा के इस निर्णय ने गलत सूचनाओं से निपटने में ऐसे माहल को क्षमता को लेकर बहस छेड़ दी है। खासकर भारत जैसे विविधतापूर्ण और विशाल जनसंख्या वाले लोकतंत्र में यह सवाल और महत्वपूर्ण हो जाता है। फैक्ट चेकिंग बंद करने के पीछे मेटा की दलील है कि ऐसे प्रयास फैक्ट चेकर्स के राजनीतिक पक्षपात से मुक्त नहीं हो सकते। सवाल है कि क्या कम्युनिटी चेकिंग इस समस्या का समाधान है? शायद नहीं। किसी समाचार की सच्चाई परखने में कौशल, अनुभव और प्रशिक्षण को आवश्यकता होती है। सामूहिक राय जैसी दिखने वाली किसी प्रणाली के आधार पर सत्य का निर्धारण नहीं हो सकता, क्योंकि यहां तो कोई भी फैक्ट चेकर बन सकता है। यहीं पर हमें मुख्यधारा के मीडिया की भूमिका और सत्य को असत्य से अलग करने में उसकी क्षमता पर ध्यान देना होगा। यह भारत के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है, क्योंकि हमारे यहां मीडिया की एक पुरानी परंपरा है। इसमें प्रिंट, टेलीविजन एवं उनके आनलाइन माध्यम शामिल हैं।
  
हमारे पारंपरिक मीडिया का उद्भव एवं विकास आंतरिक आवश्यकताओं के अनुरूप हुआ है। वह संघर्षों में तपकर निखरा है। वह देश के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष का सहभागी रहा है। उसने उत्पीड़न के खिलाफ समय समय पर मुखरता से मोर्चा संभाला है। मुख्यधारा का मीडिया हो लंबे समय से सूचनाओं के प्रसार का विश्वसनीय आधार रहा है। विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों, चैनलों और उनके वेब माध्यमों वाले पारंपरिक मीडिया की पहुंच बेजोड़ है। यह नेटवर्क दूरदराज तक समाचार सूचनाएं पहुंचाकर जनता में जागरुकता बढ़ाकर उसको लोकतांत्रिक भागीदारी को सशक्त करता है। भारत के संदर्भ में मुख्यधारा के मीडिया की महता और बढ़ जाती है।
 
भारत की विविधता यूरोप महाद्वीप जितनी ही है। जहां यूरोप के 44 देशों में 24 आधिकारिक भाषाएं हैं, वहीं एक भारत में ही 22 आधिकारिक तुलना में हमारी आबादी भाषाएं हैं। यूरोप की तुलना में भी लगभग दोगुनी है। भारत की संस्कृति और जनसांख्यिकी विविधता का उसके लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है। इस विविधता के सार को समझने के लिए हमें मुख्यधारा के मजबूत मोडिया की आवश्यकता है, जो स्थानीय मुद्दों और भाषाओं में प्रवीण हो। यह काम सोशल मीडिया कहे जाने वाले इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म को आउटसोर्स नहीं किया जा सकता। याद रहे कि इंटरनेट मीडिया जमीनी एवं तथ्यपरक रिपोर्टिंग के बजाय तीव्र प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने वाला साधन है। इस पर अधिकतर समाचार 'ट्रेडिंग' अपसंस्कृति के शिकार होते हैं। इन पर सक्रिय कंटेंट क्रिएटर्स का ध्यान सिर्फ वायरल होने वाले कंटेंट बनाने पर रहता है। उनके पास यह जांचने की योग्यता एवं कौशल नहीं होता कि कोई समाचार कितना सच है। जैसे पिछले माह एक पोस्ट वायरल हुई जिसमें दिखाया गया कि भारत में एक मस्जिद में आग लगाई जा रही है। हालांकि विशेषज्ञों की पड़ताल में पता चला कि वीडियो इंडोनेशिया का था और तनाव बढ़ाने के लिए उसे जानबूझकर गलत तरीके से पेश किया गया था। शरारत के जरिये माहौल बिगाड़ने के ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनका हम केवल पारंपरिक पत्रकारिता की ताकत से मुकाबला कर सकते हैं। वायस क्लोनिंग और डीप फेक जैसे नवीनतम एआई टूल्स ने इंटरनेट मीडिया को और बेलगाम बना दिया है। यहां किसी भी व्यक्ति की आवाज, चित्र और बीडियो से छेड़छाड़ कर कोई भी दुष्प्रचार किया जा सकता है।
  
इंटरनेट पर ऐसी तमाम साइट्स हैं जिनके माध्यम से कोई नौसिखिया भी फेक कटेंट बना सकता है। ऐसी सामग्री बहुत तेजी से तैयार हो रही है। एक्स और इंस्टाग्राम पर ब्लूटिक खरीदने के बाद कोई हँडल हूबहू कापी किया जा सकता है। इससे कटेंट क्रिएशन को लेकर भ्रम की आशंका बढ़ी है। इस पर अंकुश के उपाय सीमित एवं व्यापक रूप से अप्रभावी हैं। इंटरनेट मीडिया जवाबदेही के स्तर पर भी शून्य है। जबकि मुख्यधारा के मीडिया की पूंजी ही विश्वसनीयता है तो वह जवाबदेही को लेकर कोई समझौता नहीं करता। उसके किसी कृत्य को लेकर देश के कानूनों के दायरे में शिकायत भी की जा सकती है, लेकिन इंटरनेट मीडिया कंपनियां तो ऐसे कानूनी दायरे से ही बाहर हैं, क्योंकि उनका व्यापक परिचालन देश के बाहर हो रहा है। यह विषय राष्ट्रीय संप्रभुता से भी जुड़ा हुआ है। जब हम किसी इंटरनेट मीडिया कंपनी के विदेश स्थित फैक्ट चेकर्स या कम्युनिटी संचालित फैक्ट चेकिंग पर भरोसा करते हैं, तो हम समाचारों को सत्यापित करने की अपनी क्षमता को एक एल्गोरिदम या एआइ के हवाले कर देते हैं। यह एआई भारतीयों द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता। इस एआई में विदेशी प्रभाव के कारण हेरफेर किया जा सकता है। इसका ध्येय अक्सर हमारे राष्ट्रीय हितों को अस्थिर करने, भ्रमित करने और नुकसान पहुंचाना हो सकता है। यही कारण है कि लोकतंत्र को एक मजबूत, स्वतंत्र, स्वदेशी और आत्म- सुधार वाले चौथे स्तंभ की आवश्यकता सदैव रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि सूचनाओं के प्रसार और सामुदायिक संवाद को बढ़ावा देने में इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्मों ने अहम भूमिका निभाई है, लेकिन उनमें फर्जी खबरों की बाढ़ के चलते वे कभी मुख्यधारा के मीडिया का स्थान नहीं ले सकते। परंपरागत मीडिया अपने समृद्ध इतिहास और पत्रकारीय नैतिकता के प्रति प्रतिवद्धता के साथ गलत सूचनाओं के ज्वार के विरूद्ध एक डाल के रूप में कार्य करता है। भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में डिजिटल प्लेटफार्म और पारंपरिक मीडिया के बीच तालमेल एक सूचित और प्रबुद्ध समाज का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।