Kashmiri separatists विजय क्रांति - पिछले दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और विशेष दर्जे को समाप्त करने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं को रद्द करने के साथ यह निर्देश भी दिया था कि एक तय समय में विधानसभा चुनाव करा लिए जाएं। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के बाद जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण तरीके से हो रहे चुनावों से देश का एक वर्ग आश्वस्त दिख रहा है कि विधानसभा चुनावों के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। लोगों को यह भी उम्मीद है कि नई विधानसभा के चुने जाने के बाद आजादी के पहले दिन से ही मुसीबतों से घिरे हुए जम्मू कश्मीर में शांति बहाल हो जाएगी। कश्मीर विवाद के कारण यहां की जनता ने जैसी कठिनाइयां देखी हैं और भारत विरोधी शक्तियों के नैरेटिव निर्माण की ताकत के आगे बार-बार पस्त होने वाली केंद्रीय सरकारों ने वैश्विक मंचों पर जिस स्तर का विरोध सहा है, उसके बाद इस तरह की आशाओं का जगना स्वाभाविक भी है। इन विधानसभा चुनावों से पहले जम्मू कश्मीर की जनता ने जैसे उत्साह के साथ स्थानीय निकायों के चुनावों में भाग लिया और जैसे शांति भरे माहौल में वे चुनाव संपन्न हुए, उससे भी कश्मीर में सब कुछ ठीक होने को आस जगी थी, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा विधानसभा चुनावों की घोषणा के दिन से ही कश्मीर घाटी में जिस तरह के उम्मीदवार और जैसे चुनावी वादे पूरे माहौल पर हावी हैं, उसे देखते हुए यह आशंका बल पकड़ने लगी है कि विधानसभा में भले ही कोई भी पार्टी वा गुट बहुमत हासिल करे, लेकिन घाटी की राजनीति फिर से अलगाववाद और केंद्र से टकराव को आग में तप सकती है।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में कई प्रत्याशी ऐसे हैं, जो या तो अलगाववादी रहे हैं या ऐसे संगठनों के सक्रिय सदस्य। इनमें अनेक निर्दलीय हैं। इन निर्दलीय उम्मीदवारों के एक बड़े वर्ग का संचालन इंजीनियर रशीद के नाम से चर्चित शेख अब्दुल रशीद कर रहा है, जो देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद था। सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से वह चुनाव प्रचार के लिए जमानत पर रिहा हो गया। अलगाववादी छवि वाले इंजीनियर रशीद ने जेल में बंद रहने के बावजूद लोकसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री थी। और नेशनल कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला को उन्हीं की परंपरागत सीट बारामूला में बड़े अंतर से हराया था। रशीद पर यह आरोप है कि उसने इन चुनावों में प्रतिबंधित जमाते इस्लामी के साथ अंदरखाने गठबंधन किया हुआ है। अपने प्रचार अभियान में अनेक उम्मीदवारों ने खुलकर वह कहा है कि चुनाव जीतने पर वे फिर से अनुच्छेद 370 लागू कराएंगे और जम्मू-कश्मीर विशेष दर्जे को भी बहाल कराएंगे। ऐसे उम्मीदवारों की सभाओं में जुटने वाली भीड़ का एक असर यह हुआ कि आम तौर पर आतंकियों और अलगाववादियों के मुकाबले मध्यमागों और नरमपंथी मानी जाने वाली नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने भी गरम तेवर अपना लिए। फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती चुनावी भाषणों में 370 को फिर से लागू करने और राज्य को अधिक स्वायत्तता एवं विशेष दर्जा दिलाने का वादा कर रहे हैं। नेशनल कांफ्रेंस ने तो अपने चुनावी वादों में यह भी शामिल कर लिया है कि अगर कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन को बहुमत मिला तो विधानसभा में फिर से 2000 वाले उस प्रस्ताव को पारित किया जाएगा, जिसमें राज्य का 1951 के स्तर वाला दर्जा बहाल करने की बात कही गई थी।उसमें जम्मू-कश्मीर के लिए भारत से अलग अपने झंडे और संविधान की व्यवस्था थी।
नेशनल कांफ्रेंस से गठबंधन के कारण कांग्रेस के नेता असमंजस में हैं। कांग्रेस जम्मू क्षेत्र में उसके जैसा रवैया अपनाने का खतरा नहीं मोल लेना चाहती। जम्मू और कश्मीर घाटी के राजनीतिक समीकरण एक-दूसरे से ठीक उलट हैं। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के बाद जम्मू में जिस बड़े पैमाने पर खुशी और उत्सव का माहौल बना, वह कांग्रेस नेताओं को याद है। इसके बाद केंद्र की नीतियों ने जम्मू और कश्मीर, दोनों जगह जिस तरह विकास के नए द्वार खोले, उसे देखते हुए कांग्रेस किसी भी हालत में 370 की वापसी की बात कहने का जोखिम नहीं उठा सकती।
कश्मीर घाटी में माहौल को और खराब करने वाले दो और तत्व भी हैं, जिनकी अनदेखी महंगी पड़ सकती है। एक तो यह कि लगभग हर मामले में खुद को सक्रिय दिखाने वाले सुप्रीम कोर्ट ने जल्द चुनाव कराने का निर्देश तो जारी कर दिया, लेकिन कश्मीर घाटी से आतंक और हिंसा के दम पर भगा दिए गए कश्मीरी हिंदुओं और सिखों की सुरक्षित घर वापसी और स्थानीय राजनीति में उनकी बराबर भागीदारी सुनिश्चित करने वाला कोई निर्देश नहीं दिया। लोकतंत्र और मानवीय मूल्यों के रक्षक सुप्रीम कोर्ट से यह आशा की जाती थी कि वह इस पाप का संज्ञान लेता कि भारत के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य की कश्मीर घाटी में सदियों से रहने वाले लाखों लोगों को केवल इसलिए भगा दिया गया कि वे मुसलमान नहीं थे। इसी तरह 2022 में भले ही राज्य के नए परिसीमन आयोग ने विधानसभा सीटों को 111 से बढ़ाकर 114 कर दिया हो और जम्मू को 6 एवं घाटी को एक अतिरिक्त सीट दी हो, लेकिन इसके बाद भी विधानसभा में सत्ता का संतुलन 47 43 होने के कारण कश्मीर के पक्ष में ही रहेगा। दुर्भाग्य से परिसीमन आयोग ने शेख अब्दुल्ला के कश्मीरी दबदबे को बनाए रखने वाले फार्मूले को कायम रखते हुए 114 में केवल 90 पर चुनाव कराने और बाकी 24 सीटों को फिर से पाकिस्तान अधिकृत जम्मू कश्मीर (पीओके) यानी गुलाम कश्मीर के नाम पर खाली रखने का फैसला किया। लोकतंत्र और न्याय में विश्वास रखने वाले लोगों को आशा थी कि अगर परिसीमन आयोग ने ये 24 सीटें भारत भर में फैले पीओजेके विस्थापितों के नाम पर बहाल कर दी होतीं तो न केवल 77 साल से उपेक्षित और न्याय से वंचित इन लोगों को न्याय मिलता, बल्कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर कुंडली मारे बैठे कश्मीरी अलगाववाद से भी राज्य और देश, दोनों को हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती।