अराजकता में डूबा बांग्लादेश

अस्थिरता से बुरी तरह घिरे बांग्लादेश में अवामी लीग के साथ हिंदुओं का भी भविष्य खतरे में है...

Pratahkal    08-Aug-2024
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Bangladesh choas
 
दिव्य कुमार सोती - बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन के बाद बांग्लादेश (Bangladesh) की प्रधानमंत्री शेख हसीना (Sheikh Hasina) को अपना देश छोड़कर भारत आना पड़ा। पिछले कुछ दिनों से बांग्लादेश की सड़कों पर हिंसा का जो नंगा नाच चल रहा था और बांग्लादेशी फौज में इन प्रदर्शनकारियों को लेकर जैसी सहानुभूति दिखाई दे रही थी, उसे देखते हुए शेख हसीना के पास अधिक विकल्प नहीं बचे थे। अगर वह सही समय पर देश नहीं छोड़तीं तो संभवतः उनका हाल उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान जैसा होता, जिनकी उनके अधिकांश परिवारजनों के साथ बांग्लादेश निर्माण के चार साल के भीतर ही फौजी कट्टरपंथी तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई थी। यह भी अच्छा रहा कि शेख हसीना ने अपने ही रिश्तेदार को सेना प्रमुख नियुक्त किया था। संभवतः इस कारण भी उन्हें देश से बाहर निकलने का सुरक्षित रास्ता मिल सका। बांग्लादेश में जो हुआ, वह देर-सबेर होना ही था। करीब 15 वर्षों से शासन कर रहीं शेख हसीना देश को पंथनिरपेक्ष बनाने का प्रयास कर रही थीं। एक समय वह इसमें कुछ सफल होती भी दिख रही थीं। अपने शासन में वह बांग्लाभाषी मुसलमानों और अल्पसंख्यक हिंदुओं का पाकिस्तानी फौज के साथ मिलकर नरसंहार करने वाले जमात-ए- इस्लामी के रजाकार नेताओं को फांसी की सजा दिलाने में सफल रहीं। उनकी इस मुहिम के विरोध में विपक्षी और इस्लामी कट्टरपंथी तत्वों से गहरे संबंध रखने वाली खालिदा जिया की बीएनपी भी कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर सकी थी।
 
बांग्लादेश में पिछले एक साल में हालात बहुत तेजी से बदले । शेख हसीना ने अमेरिका की रणनीतिक योजनाओं में मोहरा बनने से इन्कार कर दिया। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा भी कि एक पश्चिमी देश उनसे बांग्लादेश के एक द्वीप पर सैन्य अड्डा बनाने की अनुमति मांग रहा है। उन्होंने यह रहस्योद्घाटन भी किया कि उस पश्चिमी देश की योजना बांग्लादेश, म्यांमार और भारत के ईसाई बाहुल्य पूर्वोत्तर क्षेत्र को एकीकृत कर पूर्वी तिमोर की भांति एक अलग ईसाई देश बनाने की है। उनका इशारा भारत के मिजोरम, मणिपुर, म्यांमार के चिन प्रदेश और बांग्लादेश के एक छोटे से क्षेत्र को मिलाकर कुकीलैंड या जालेनगाम बनाने के लिए चल रहे सशस्त्र आंदोलन की तरफ था। इस सबके चलते वह नागरिक विरोध-प्रदर्शनों के नाम पर 'रंगीन क्रांतियां' कराकर सरकारों का तख्तापलट कराने में माहिर अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के निशाने पर आ गई थीं, क्योंकि यह सच है कि अकेले इस्लामिक तत्व उनका तख्तापलट करने में सफल नहीं हो पा रहे थे । यही कारण रहा कि उनके विरोध में अलग अलग मुद्दों को छेड़कर नागरिक विरोध प्रदर्शनों का स्वरूप दिया गया। इस कड़ी में कई महीनों तक बांग्लादेश में भारत विरोधी प्रदर्शन हुए जिनमें भारत के बहिष्कार का आह्वान किया गया। शेख हसीना को भारत का मोहरा बताया गया इसके बाद छात्रों के माध्यम से 1971 के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवारों को मिलने वाले आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन शुरू किए गए। इसका उद्देश्य सरकारी तंत्र में सेक्युलर प्रवृत्ति रखने वाले शेख मुजीब समर्थकों की संख्या को घटाना था। यह ध्यान देने योग्य है कि यह आरक्षण पिछले पांच दशकों से दिया जा रहा था, परंतु इसके विरोध में प्रदर्शन तभी शुरू हुए जब शेख हसीना ने अमेरिका के इशारों पर काम करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने चीन के इशारे पर भी चलने से इन्कार किया। चीन ने इस्लामाबाद के जरिये ढाका में पाकिस्तानपरस्त तत्वों की मदद की हो तो कोई हैरानी की बात नहीं।
 
आरक्षण विरोध वास्तव में आरक्षण को लेकर नहीं था। इसे इससे समझा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण को घटाकर 2 प्रतिशत करने के बावजूद प्रदर्शन नहीं रूके। कोर्ट द्वारा आरक्षण का मुद्दा सुलझाने के बावजूद प्रदर्शन और उग्र हो गए। प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की जाने लगी। इन प्रदर्शनों के दौरान ही हिंदू अल्पसंख्यकों के धर्म स्थलों और घरों पर व्यापक हमले भी शुरू हो गए। बड़ी बात नहीं कि विरोध प्रदर्शनों के पीछे अमेरिकी एजेंसियों और इस्लामी कट्टरपंथियों का गठजोड़ भी काम कर रहा हो और जिसका उद्देश्य शेख हसीना सरकार का तख्तापलट करना हो। यह इससे लगता है कि शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेश के राष्ट्रपिता माने जाने वाले शेख मुजीब से जुड़े स्मृति चिह्नों को निशाना बनाना शुरू किया।
 
शेख हसीना सरकार अपदस्थ होने के बाद बांग्लादेश घोर हिंसा और अराजकता में डूब गया है। इस्लामिक कट्टरपंथी अवामी लीग के नेताओं समर्थकों और हिंदू अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं। वहाँ से विचलित करने वाली तस्वीरें आ रही हैं। बांग्लादेश जब 1971 में बना था, तब वहां हिंदू जनसंख्या 22 प्रतिशत थी जो आज घटकर 7-8 प्रतिशत के बीच रह गई है। आज भी बांग्लादेश में 1.3 करोड़ हिंदू रहते हैं। उनका अस्तित्व खतरे में है। शेख हसीना के जाने के बाद भी सेना ने हिंदुओं की हत्याओं को रोकने के लिए कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की है। वह उन्हीं तत्वों को अंतरिम सरकार बनाने के लिए बुला रही है, जो हिंसा कर रहे हैं। ऐसे में उनके सत्ता में आने पर हिंदुओं की सुरक्षा को और खतरा बढ़ाना तय समझिए। ऊपर से बीएनपी और जमात इस फिराक में हैं कि अवामी लीग का कोई नामोनिशान बांग्लादेश में न बचे। अगर यह हिंसा का दौरा लंबा चलता है तो भारत सरकार हिंदुओं एवं भारत समर्थक अवामी लीग के कार्यकर्ताओं के 1970-71 सरीखे नरसंहार में मूकदर्शक नहीं बनी रह सकती। फिलहाल बांग्लादेश सेना हिंसाग्रस्त इलाकों में फंसे हिंदुओं और लीग समर्थकों को वहां से निकाल कर राहत शिविरों में लाए।
 
बांग्लादेश के भयावह दिख रहे भविष्य को देखते हुए वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों की दूरगामी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि भारत के निकट उनके घनी आबादी वाले क्षेत्र स्थापित किए जाएं। इस मामले में हमें रूस से सीखना चाहिए, जिसने यूक्रेन के डोनस्क और लुहांस्क को रूसी भाषियों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बना दिया। अगर हम यह नहीं कर सके तो बांग्लादेश में घटती हिंदुओं की संख्या को विलुप्त होते देखेंगे। संभवतः उनकी सुरक्षा में हमारे समूचे पूर्वोत्तर के भविष्य की सुरक्षा भी निहित है।