मोदी सरकार की नई अग्नि-परीक्षा

भगवा दल को जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड, इन चारों सूबों में स्थानीय मुद्दों के समाधान पेश करने हैं, पर प्रदेश भर को लुभाने की कुव्वत वाले नेताओं के अभाव में उसे प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर निर्भर करना होगा। यदि यहां मनमुताबिक नतीजे नहीं मिले, तो एनडीए के तमाम सहयोगी आशंकाओं के शिकार हो सकते हैं।

Pratahkal    18-Jun-2024
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शशि शेखर - शुरुआती अवरोधों से गुजरते हुए सरकार रायसीना हिल्स पर स्थापित हो चुकी है। जो लोग इस गठजोड़ के स्थायित्व पर सवाल उठा रहे हैं, वे गलत हैं। हुकूमत को फिलहाल कोई खतरा नहीं। हालांकि, इसे चार महीनों के भीतर एक अग्नि परीक्षा से अवश्य गुजरना है।
 
आप जानते हैं कि अगले चार महीनों में चार राज्यों में विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं। ये प्रदेश हैं- जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड। इन राज्यों के नतीजों में आने वाले दिनों की राजनीतिक करवटों का आगाज छिपा है।
 
जम्मू-कश्मीर फिलहाल चर्चा में नहीं है, लेकिन देश की आला अदालत सितंबर तक वहां चुनाव कराने के आदेश दे चुकी है। बरसों से हिंसा के अलाव में तप रहे इस सुबे में अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। ये चुनाव कई वजहों से महत्वपूर्ण हैं। अगली 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 हटने के पांच वर्ष पूरे हो जाएंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता इन पांच सालों में हुए विकास कार्यों, प्रदेश के विभाजन और अनुच्छेद 370 के फैसले के पक्ष में वोट देते हैं या विपक्ष में?
 
हम जैसे लोग, जो धरती के इस खूबसूरत टुकड़े को आग के गोले में तब्दील होता देख चुके हैं, उनके लिए घाटी के मौजूदा हालात सुकूनदेह हैं। उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा के नेतृत्व में कोरोना के मारक दिनों में कुदरत की तमाम बाधाओं से जूझते हुए दुर्गम पहाड़ियों के बीच बसे घरों तक जिस तरह सुविधाएं पहुंचाई गई, वे कुछ वर्ष पहले तक अकल्पनीय थीं। यही नहीं, जमा देने वाले जाड़े में बिजली की अबाध आपूर्ति और चौतरफा विकास कार्यों ने कश्मीरियों के मानस में बुनियादी परिवर्तन किया है। शेष देश ने भी इसका खैर-मकदम किया है। सैलानियों की उमड़ती भीड़ इसकी गवाह है। इस बीच यकायक बढ़े आतंकी हमलों ने कुछ नए सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं। वहां का सदन मु लगता है कि दहशतगदों से दिन-रात जूझ रहे जांबाजों पर ऐसे सवाल उठाना ज्यादती है। उनका ट्रैक रिकॉर्ड शानदार रहा है।
 
यही वजह है कि पिछले महीने आम चुनावों के दौरान घाटी के तमाम मतदान केंद्रों पर मतदाताओं के उत्साह ने नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए। इन चुनावों के नतीजे गौरतलब हैं। अखंड जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री की कुरसी पर विराज चुके उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को जनता ने धराशायी कर दिया। भाजपा ने घाटी में चुनाव नहीं लड़ा, पर जम्मू खित्ते से उसे दो सीटें हासिल हो गई। बाकी बची सीटों में एक पर निर्दलीय और अन्य दो पर नेशनल कॉन्फ्रेंस की जीत हुई।
 
मतलब साफ है, पीडीपी का किला दरक रहा है। उमर अब्दुल्ला हारे जरूर, पर उनकी अगुवाई वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस किसी अन्य प्रादेशिक दल से कहीं अधिक मजबूत साबित हुई। भाजपा भले नंबर एक रही हो, पर उसे फैसलाकुन सीटें लाने के लिए अपना आधार बढ़ाना होगा। गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि हम आगामी विधानसभा चुनावों में यहां की सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करेंगे। क्या इस बार भगवा दल घाटी में जीत के पुराने सपने को चरितार्थ कर सकेगा? यहां कांग्रेस की हालत खस्ता है। क्या वह गठबंधन के नाव खेना चाहेगी?
 
इस प्रदेश की नई कहानी हार-जीत का अंकगणित नहीं, बल्कि मतदान का मन मिजाज लिखेगा। समूची दुनिया की निगाहें इस चुनाव पर टिकी हैं।
 
अब हरियाणा की चर्चा। भाजपा 2019 में यहां दस में दसों सीटें जीत गई थी। इस बार उसे आधी सीटों से संतोष करने पर मजबूर होना पड़ा है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर उसके खिलाफ लड़े थे। इस गठबंधन को 47.61 प्रतिशत मत मिले। भाजपा 46.11 फीसदी मत पाकर भले ही थोड़ा पीछे रह गई हो, पर पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले उसके मत प्रतिशत में लगभग दस फीसदी का उछाल आया है। कांग्रेस ने भी 15.59 फीसदी अधिक वोट पाकर पहले के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन किया है।
 
यहां भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर हर हाल में कुछ शोले, तो कुछ चिनगारियां पैदा करेगी।
 
महाराष्ट्र का मामला तो और अधिक ध्यानाकर्षक है। यहां किसी अन्य प्रदेश के बरक्स कहीं ज्यादा राजनीतिक किरदार लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे थे। इनमें उद्धव ठाकरे एक बार फिर सबसे बड़ी शक्ति के तौर पर उभरे हैं। 'मराठा क्षत्रप' के नाम से मशहूर शरद पवार ने दस में से आठ स्थानों पर जीत हासिल कर खुद को पुन साबित कर दिया है। कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शरद पवार) की महाविकास अघाड़ी यानी 'इंडिया' ब्लॉक ने करीब 44 फीसदी मत हासिल किए, जबकि भाजपा की अगुवाई वाला गठबंधन 42.73 प्रतिशत के साथ कड़ी लड़ाई में रहा। इंडिया ब्लॉक ने 48 में से 30 सीटें जीती हैं। इस चुनाव से पहले तक महाराष्ट्र को भाजपा और उसके सहयोगियों का गढ़ माना जाता था।
 
महाराष्ट्र की जनता ने हरियाणा और जम्मू-कश्मीर की भांति यहां भी सिद्धांतहीन जोड़-तोड़ की राजनीति को पूरी तरह नकार दिया है। कभी खुद को एनसीपी का असली कर्ता-धर्ता बताने वाले अजित पवार महज एक सीट पर सिमट गए। मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने सात निर्वाचन क्षेत्र जीतकर इज्जत तो बचा ली, पर प्रदेशव्यापी अपील में वह उद्धव के सामने फीके पड़ गए हैं। हमें इस सूबे में चुनाव से पहले आयाराम-गयाराम का नया तमाशा देखने को मिल सकता है। भारतीय जनता पार्टी यहां प्रमुख राजनीतिक दल जरूर है, पर उसके पास कोई प्रदेशव्यापी जिताऊ चेहरा नहीं है। उसका गठबंधन इस बार सफल साबित नहीं हुआ है।
 
अंत में झारखंड की चर्चा। अपने जन्म से यह प्रदेश शीर्ष नेताओं के भ्रष्टाचार और कारागार-यात्राएं झेलने को अभिशप्त है। वहां के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन फिलवक्त कदाचार के आरोप में सलाखों के पीछे हैं। वहां सरकार तो नहीं गिरी, पर झारखंड मुक्ति मोर्चा में अंदरूनी खदबदाहट के चिह्न साफ देखे जा सकते हैं। हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन गांडेय से उप-चुनाव जीतकर विधायक बन चुकी हैं। उनकी जेठानी सीता सोरेन दुमका से भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ीं, पर हार गई। इस चुनाव में सिर्फ झारखंड मुक्ति मोर्चा नहीं, बल्कि सोरेन परिवार की टूट भी जगजाहिर हुई।
 
इस सबके बावजूद इंडिया ब्लॉक, जिसका झारखंड मुक्ति मोर्चा भी सदस्य है, आदिवासी, ईसाई, दलित और मुस्लिम आबादी के बूते एक सशक्त गठबंधन बनाता दौख रहा है। भारतीय जनता पार्टी इस बार 14 में से नौ सीटें जीतने में भले कामयाब रही हो, पर उसे झटका लगा है। यहां भी उसके पास प्रदेशव्यापी अपील का कोई नेता नहीं है।
 
मतलब साफ है, भगवा दल को इन सूबों में स्थानीय मुद्दों के समाधान पेश करने हैं, पर प्रदेश भर को लुभाने की कुव्वत वाले नेताओं के अभाव में उसे प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर निर्भर करना होगा। यदि यहां मनमुताबिक नतीजे नहीं मिले, तो एनडीए के तमाम सहयोगी आशंकाओं के शिकार हो सकते हैं। रही बात इंडिया ब्लॉक की, तो वह झारखंड के अलावा कहीं सत्ता में नहीं है। अगर परिणाम उसके पक्ष में नहीं गए, तो 4 जून के नतीजों से उम्मीद की जो चंद किरणें उसे हासिल हुई हैं, वे भी धुंधला जाएंगी। ये चुनाव सभी पक्षों के लिए चुनौतियां लेकर आने वाले हैं।