मुंबई। मेवाड़ संघ मुंबई उपसंघ डोम्बिवली-कल्याण में संपन्न हुए महासती डॉ. कुमुदलता मसा डॉ. महाप्रज्ञा मसा डॉ. पद्मकीर्ति मसा राजकीर्ति मसा के चातुर्मास के बाद डा कुमुदलता मसा ने उनके जीवन से जुड़े अनुभवों व चातुर्मास के आकर्षण के केंद्र रहे अनुष्ठानों की साधना पर विस्तार से बातचीत की। महासती ने कहा कि जानकारी के अभाव से अनुष्ठान का अर्थ दूसरे रूप में लिया जाता है जबकि अनुष्ठान का मूल अर्थ है अपनी बिखरी हुई वैचारिक शक्ति/अणुओं को एक जगह इकठ्ठा कर ईश्वर की उपासना करना।अनुष्ठान व्यक्ति को अनुशासन प्रदान करता है, आदर्शों पर ध्यान केंद्रित करने और वैराग्य विकसित करने में मदद करता है। एक विशिष्ट आध्यात्मिक सूत्र में बांधता है। सामान्य शब्दों में कहें तो मनुष्य का हर अच्छा कर्म एक अनुष्ठान है।
मध्य प्रदेश के जावरा क़स्बे में जन्म लेने वाली महासती कुमुदलता मसा बाल ब्रह्मचारिणी हैं, जिन्होंने बचपन में ही महासती कमलावती महाराज के सानिध्य में वैराग्य को अंगीकार कर लिया था। उन्होंने बताया कि जैन धर्म में आदिकाल से विभिन्न अनुष्ठान आयोजन करने की विरासत रही है। कालांतर में भिन्न-भिन्न संप्रदायों का उद्भव होने से इन अनुष्ठानों में अलग-अलग स्वरूप बन गए। लेकिन आज भी कुछ अनुष्ठान या आराधना एक जैसी होती हैं। उन्होंने कहा कि उनके मार्गदर्शन में होने वाले तमाम अनुष्ठान स्थानकवासी जैन पंरपरा के सिद्धांत व नियमों में बंधे होते हैं।
उन्होंने कहा कि वर्ष में एक बार होने वाला महामंगलकारी अनुष्ठान मूल रूप से विश्व शांति की भावना के साथ किया जाता है। यह संपूर्ण आयोजन 24 घंटे का होता है जिसमें ईश्वरी सत्ता से वंदना कर व्यक्ति अपने पापों की निर्जरा का मार्ग प्रशस्त करता है।
मानतुंगाचार्य का अवदान है भक्तामर स्रोत
महासती कुमुदलता ने विभिन्न साधनाओं की विशेषता बताते हुए भक्तामर स्रोत पर कहा कि चातुर्मास काल में यह अवसर समस्त श्रावक श्राविकाओं को जोड़कर रखता है। उन्होंने कहा कि अनेक युग पूर्व काशी में रहने वाले मानतुंगाचार्य महाराज ने इसकी रचना की थी। इस स्रोत में मूल रूप से आदिप्रभु के गुण की महिमा है। प्रभु को उपमा देकर, भक्ति ज्योति जलाई गई है। भक्तामर स्तोत्र का मूल नाम आदिनाथ स्रोत है। तत्कालीन समय में संस्कृत भाषा में लिखे गए इस स्रोत को कालांतर में जैन धर्म के अनेकों आचार्यों ने प्रचारित किया। श्रद्धा और विश्वास के साथ जब कोई चीज की जाती हैं तो चमत्कार का रूप अख्तियार कर लेती है, जबकि सच्चे अर्थों में वह चमत्कार ना होकर समर्पण और श्रद्धा है। महासती ने बताया कि भक्तामर के काव्यों का जाप एक माला के रूप में प्रतिदिन प्रातःकाल करना चाहिए। यह स्तोत्र महान प्रभावशाली है, सब प्रकार से आनंद मंगल करने वाला है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में कलीकाल चल रहा है शुद्धता का भाव है, जो साधक इस स्तोत्र के प्रभाव को देखना चाहता है उसके लिए स्रोत के पाठ के पूर्व देहशुद्धि, वस्त्रशुद्धि, स्थानशुद्धि एवं चैतसिक स्वस्थता अपेक्षित है।
मूल लक्ष्य भगवान महावीर के संदेश
जैन समाज के वर्तमान स्वरूप के प्रश्न पर महासती ने कहा कि भगवान महावीर की परंपरा की अनुयायियों में कुछ शिथिलता व्याप्त हुई है, फिर भी वह धर्म के प्रति पूर्ण समर्पित हैं, और यह समर्पण ही जैन धर्म की एकता का मूल मंत्र है। महासती ने कहा कि लोग भले ही वैचारिक रूप से अलग-अलग हुए हैं, लेकिन मूल लक्ष्य भगवान महावीर के संदेश ही हैं, उन्होंने कहा कि कलयुग के प्रभाव से धर्म में आडंबर का प्रभाव बढ़ा है, जिसे कम करने की आवश्यकता है, और यह तभी काम होगा जब जैन धर्म के बड़े आचार्य बड़े समुदाय बड़े संप्रदाय एक मंच पर आकर इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाएंगे।
जैन धर्म आत्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करता है
महासती कुमुदलता ने कहा कि जैन धर्म आत्मा के पूर्व जन्म में विश्वास रखता है। इस बात को अगर गौर से समझा जाए तो दुनिया के सभी दुख दर्द स्वत नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि मूल बात यह है कि हम जैसा कर्म करेंगे वैसा फल प्राप्त करेंगे। अगर हमारा कर्म ईश्वर के प्रति समर्पित भाव का है तो हमें भावनाएं दुष्कर्म करने से रोकेगी और हमारे अच्छे कर्मों की बदौलत हम हमेशा हमेशा के लिए मोक्षगामी बन जाएंगे। लेकिन अगर हमारे कर्म खराब है तो हमें जन्म-जन्मांतर के चक्र में फंसे रहकर अपनी आत्मा को दुख भोगने के लिए तैयार रखना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि संसार में जितने भी धर्म संप्रदाय या मजहब है, सभी में कर्म को प्रधानता दी गई है। लेकिन वर्तमान समय में इस शब्द को सिर्फ अपने आप को ज्ञानी बताने के लिए ही इस्तेमाल कर रहे हैं, इसके महत्व को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अगर इसे स्वीकार कर लिया जाए तो संसार बड़ा सुखी हो जाएगा।
सरस्वती साधना का प्रत्यक्ष प्रमाण
उन्होंने कहा कि कुछ वर्षों पूर्व जब मुंबई के वसई क्षेत्र में चातुर्मास कर रहे थे इस दौरान उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए ओपन परीक्षा के लिए विले पारले का एक कॉलेज चुना था।
श्रावकों की संख्या अधिक होने से वह पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाए थे, उस दिन उन्होंने मां सरस्वती के मंत्रों की विशेष आराधना करके परीक्षा देने का निर्णय किया। और सरस्वती साधना के बदौलत ही उन्हें शत प्रतिशत परिणाम प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि प्रसंग हम इसलिए नहीं सुना रहे हैं कि आप पढ़ाई से मुख मोड़ लें। पढ़ाई तो सबको करनी ही है।
लेकिन मंत्रों का इतना प्रभाव होता है कि हमारे ज्ञान तंत्र सक्रिय हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि हर बच्चे को सरस्वती मंत्र की आराधना करनी चाहिए क्योंकि यह मंत्र बड़ा जागृत है और इसके बेहतर परिणाम मिलते हैं। उन्होंने कहा कि वैदिक धर्म हो या जैन धर्म हो सरस्वती आराधना हर धर्म में किसी ने किसी रूप में उपस्थित है। ज्ञान की देवी की आराधना से ही हम जगत के और परमार्थ के लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं।
महासती ने कहा कि भारत के पारंपरिक ज्योतिष शास्त्र की जड़ें प्राचीन वैदिक शास्त्र से ही जुड़ी हैं। दूसरी ओर पश्चिमी ज्योतिष प्राचीन बेबीलोनियन ज्योतिष से निकला है जोकि बाद में हेलेनिस्टिक दुनिया में स्थानांतरित हो गया। धीरे-धीरे यह ज्योतिष ग्रीक और रोमन जैसे अन्य जगहों पर भी फैल गया और उन्होंने इसमे अपनी व्याख्याओं और विधियों को जोड़ा। महासती बताते हैं कि जैन धर्म में ज्योतिष शास्त्र का बड़ा महत्व है। चातुर्मास प्रवेश से लेकर समापन तक ज्योतिष का खूब प्रयोग होता है। उन्होंने कहा कि कुंडली के माध्यम से जीवन के विभिन्न चरणों को समझा जा सकता है। ज्योतिष कोई तंत्र मंत्र नहीं विशुद्ध रूप से एक विद्या है जिसका सही तरीके से उपयोग करके मानव कई परेशानियों से मुक्त हो सकता है।