संयुक्त राष्ट्र में भारत का भारी होता पलड़ा

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र निकाय के विस्तार की वकालत भी की है। मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में कहा कि फ्रांस सुरक्षा परिषद के विस्तार के पक्ष में है। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। इससे लगता है कि भारत की स्थायी सदस्यता के लिए सहमति बढ़ रही है। इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वैश्विक प्रभाव और सफल कूटनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा

Pratahkal    01-Oct-2024
Total Views |
Modi At UNGA
 
India at the United Nations प्रमोद भार्गव - फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) की संबोधित करते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। मैक्रों ने कहा है कि फ्रांस सुरक्षा परिषद के विस्तार के पक्ष में है। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। साथ ही दो ऐसे देश भी होने चाहिए, जिन्हें अफ्रीका प्रतिनिधित्व के लिए अनुशंसा करे। दूसरी तरफ पाकिस्तान से दोस्ती और भारत विरोधी रूख के लिए चर्चित तुर्किये के राष्ट्रपति रिसेष तैयप एर्दोगन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को झटका दिया है। उन्होंने इस बार कश्मीर का जिक्र नहीं किया। 2019 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब एर्दोगन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर के मुद्दे से किनारा किया। इससे लगता है कि सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए सहमति बढ़ रही है। इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वैश्विक प्रभाव और सफल कूटनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। भारत के संयुक्त राष्ट्र में भारी होते पलड़े के संदर्भ में विशेषज्ञों का मानना है कि तुर्किये ब्रिक्स का सदस्य देश बनना चाहता है। इसके लिए उसे भारत की मदद जरूरी है। यदि भारत असहमति जता देता है तो उसे सदस्यता मिलना मुश्किल है। ब्रिक्स में इस वक्त ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण आफ्रीका शामिल हैं। भारत इसमें प्रमुख सदस्यों में से एक है। तुर्किये को नाटो देशों के समूह से भी बाहर निकाला जा सकता है। इसलिए तुर्किये ब्रिक्स देशों की सदस्यता चाहता है।
 
भारत की दलील है कि 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद 21वीं सदी की लक्ष्यपूर्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें समकालीन भूराजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिंब दिखाई नहीं दे रहा है। वर्तमान में सुरक्षा परिषद में 5 स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य देश शामिल हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा दो साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है, परंतु 5 स्थायी सदस्य रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और अमेरिका है। इनमें से प्रत्येक देश के पास ऐसी शक्ति है, जिसका प्रयोग कर वे किसी भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर बीटो लगा सकते हैं। भारत 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अस्थायी सदस्य के रूप में चुना गया था। किंतु दुनिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उससे निपटने के लिए स्थायी सदस्यों की संख्या दुनिया का हित साधने के लिए बढ़ाई जानी चाहिए। इसीलिए मैक्रों को कहना पड़ा कि सुरक्षा परिषद के कामकाज के तरीकों में बदलाव, सामूहिक अपराधों के मामलों में वीटो के अधिकार को सीमित करने और शांति बनाए रखने के लिए जरूरी फैसलों पर ध्यान देने की जरूरत है। मैक्रों की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान के बाद आई है, जिसमें तन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि वैश्विक शांति और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार आवश्यक है। सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है। वाकई इस समय कई वैश्विक संस्थाएं इसके अभाव में अपनी प्रासंगिकता खोती दिखाई दे रही हैं। हाल में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने भी 15 सदस्य देशों को सुरक्षा परिषद को पुरानी व्यवस्था का हिस्सा बताकर आलोचना की। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अगर इसको संरचना और कार्य प्रणाली में सुधार नहीं होता है तो इस संस्था से दुनिया का भरोसा उठ जाएगा।
 
दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका अहम मकसद भविष्य की पौड़ियों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूप्स और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बना था। कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में काम कर चुके शशि थरूर की किताब 'नेहरू द इन्वेंशन आफ इंडिया' में लिखा है कि 1953 के आसपास भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने उसे चीन को दे दिया। थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इन्कार का जिक्र है। अतः कहा जा सकता है कि नेहरू की भयंकर भूल और उदारता का नुकसान भारत आज तक उठा रहा हैं। जबकि उस समय अमेरिका भारत के पक्ष में था।
 
भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है. यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इजरायल फलस्तीन और रूस अमेरिका के बीच संघर्ष लगातार जारी है। अनेक इस्लामिक देश गृह कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। इसका उदाहरण मसूद अजहर जैसे पाकिस्तानी आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन द्वारा बार बार वीटो का इस्तेमाल करना है। जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका निर्वाह करता रहा है। बावजूद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आवादी एवं सामुदायिक बहुलता वाला देश सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है। विश्व का हर छठा व्यक्ति भारतीय है।
 
साफ है संयुक्त राष्ट्र की कार्य संस्कृति निष्पक्ष नहीं है। कोविड के दौर में विश्व स्वास्थ्य संगठन की मनवतावादी केंद्रीय भूमिका दिखनी चाहिए थी, पर वह महामारी फैलाने वाले दोषी देश चीन के समर्थन में खड़ा नजर आया। अलबत्ता संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि उसके एजेंडे में प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैन्य कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार शामिल हैं। इस नाते उसकी मूल कार्यपद्धति में शक्ति-संतुलन चनाए रखने की भावना अंतर्निहित है, लेकिन वह इन प्रतिबद्धताओं को नजरअंदाज कर रहा है। गोया इस विश्व संस्था के प्रति विश्वास का संकट गहराया हुआ है। नतीजतन इसमें सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है।