बड़ा भाई हो तो राम जैसा, बेटा हो तो राम जैसा, प्रजापालक हो तो राम जैसा, राजा हो तो राम जैसा देश की रामनामी संस्कृति के प्रवाह में बार-बार व्यवधान आए, पर जब-जब यह ज्ञान-केंद्रित सभ्यता विध्वंस के कगार पर पहुंची, तब-तब किसी महापुरूष का आविर्भाव हुआ, जिसने इस सनातन सभ्यता का पुनरुद्धार किया।
प्रो. कपिल कपूर: पांच अगस्त, 2020 को जब भगवान राम जन्मभूमि (Ram Janmabhoomi) के मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू हुआ, तो वह एक भवन या पूजास्थल का पुनर्निर्माण नहीं, बल्कि योगभूमि भारतवर्ष (bhaaratavarsh) की सनातन संस्कृक्ति (sanaatan sanskrkti) और सभ्यता के पुनस्थापन का शुभारंभ था। यह सर्वमान्य तथ्य है कि भारत (India) के सांस्कृतिक प्रवाह में बार-बार व्यवधान आए, जो इस अर्पण समर्पण-तर्पण की संस्कृति और इस ज्ञान केंद्रित सभ्यता को विध्वंस के कगार पर ले गए। लेकिन जब जब भी इस सभ्यता का हास हुआ, तब तब भगवत्कृपा से किसी महापुरूष का आविर्भाव हुआ, जिसने शस्त्र या शास्त्र या फिर दोनों से धर्म की रक्षा की और इस सनातन सभ्यता का पुनरूद्धार किया।
परंपरागत विश्वास है कि लोप प्राकट्य के ऐसे 28 काल चक्रों का अनुभव करने के बावजूद अगर हमारी सभ्यता व संस्कृति जीवंत बनी हुई है, तो इसकी वजह है भाषाओं, भूगोल, खान-पान के भेदों से ऊपर हिमालय से दक्षिण सागर तक के जन मानस की ज्ञान-जित चैतन्य की एकात्मता ।
इस एकात्मता का सर्वोपरि मूल्य है: त्याग ईशावास्योपनिषद का तेन त्येक्तेन भुञ्जीथा। भारत का जनमानस उन युगपुरूषों की प्रतीकों के रूप में उपासना करता है, जो त्यागमूर्ति हैं। इनमें पहले और सर्वप्रमुख हैं अवतार पुरूष भगवान राम। वह एक गृहस्थ सामाजिक पुरूष होते हुए भी त्याग की मूर्ति के रूप में भारतीय जनमानस में उतरकर स्थापित हो गए। जैसे हनुमानजी ने सीताजी को अपने हृदय में राम को प्रत्यक्ष स्थापित दिखाया, उसी प्रकार भारत का हृदय राममय है।
इस प्राचीन सभ्यता के पर्याय हैं राम जैसे हरियाणा के महरानगढ़ के अवेशष ईसा से 7,000 वर्ष पहले के हैं, वैसे ही भगवान राम की तिथि नक्षत्रों के आधार पर ईसा से लगभग 7,100 वर्ष पूर्व मानी गई है। शायद इसीलिए हरियाणा भारत के सभी प्रदेशों में सबसे अधिक राम नाम में डूबा रहता है। सभी एक दूसरे का अभिवादन 'राम राम जी' से करते हैं, वर्षा होती है तो 'रामजी खूब बरस रहे हैं', वर्षा नहीं होती तो 'राम जी न बरस रहे। ऐसे सांसों में बसे हुए हैं राम, केवल हरियाणा (Hariyana) निवासियों में नहीं, सभी भारतीयों की सांसों में सदियां बीत गई, कई उत्थान पतन हो गए, लेकिन राम नाम और राम कथा प्रगाढ़ता से लोक के जनजीवन में जीवन मूल्यों के दृष्टांत के रूप में स्थिर रहे।
किसी भी राम कथा का श्रवण कीजिए, 'राम' एक आदर्श पुरूष रूप में हमारी मानसिकता में समावेशित हो जाते हैं। भगवान राम ने राजपाट का ही नहीं, अपनी जान से भी प्रिय सीता का, और सीता से भी अधिक प्रिय लक्ष्मण भ्राता का 'लोक-संग्रह' के लिए त्याग कर दिया और अंत में पावन सरयू नदी में अपने जीवन का भी त्याग कर दिया।
राम के राज्याभिषेक के दिन माता कैकेयी कहती हैं कि तुम्हें 14 वर्ष के लिए वनवास में जाना है और तुम नहीं, भरत सिंहासन पर बैठेगा। वाल्मीकि कहते हैं कि यह सब सुनकर भी राम के चेहरे का भाव नहीं बदला और उन्होंने कहा- बस इतनी सी बात माता। मैं तो कब से पुनः वन में जाना चाहता था। मां ने मेरी इच्छा पूरी कर दी ।
भरत को जब ननिहाल में यह सब पत्ता चला और उन्होंने जाना कि राम वनवास चले गए और पिता की इस दुख से मृत्यु हो गई, तो वह यथाशीघ्र अयोध्या (Ayodhya) पहुंचे और सीधे माता कौशल्या के पास जाकर विलाप करने लगे माता अगर मैंने स्वप्न में कभी एक क्षण के लिए भी सिंहासन पर बैठने का सोचा हो, तो मुझे हजारों गाय और ब्राह्मणों को वध करने का पाप लगे, स्वयं वल्कल वस्त्र धारण कर, राम की खड़ाऊं को सजाकर, अयोध्या से बाहर रह कर अपने बड़े भाई की धरोहर का सम्मान किया। जब भरत राम को मनाने वन गए तो चलते हुए भरत को गले लगाकर राम ने कहा- मेरी कैकेयी माता का ध्यान रखना।
बड़ा भाई हो तो राम जैसा, बेटा हो तो राम जैसा, प्रजापालक हो तो राम जैसा, राजा हो तो राम जैसा सीता का त्याग भी उनके राजधर्म का अनुशासन है। जन्म से मरण तक उन का नाम ही व्यक्ति का सहारा है। रामनवमी व दशहरा, दिवाली का त्योहार उनके लिए मनाया जाता है। और वह स्थान, जहां उन्होंने अवतार रूप में जन्म लिया, वह अयोध्याजी की रामजन्मभूमि उन के अरबों भक्तों के लिए सबसे पुण्य तीर्थ स्थान है। वह राम जन्मभूमि राम को ही नहीं, भारत की सांस्कृतिक-सभ्यता को अविरल धारा का प्रतीक है। उस जन्मभूमि पर प्राचीन काल से, राम लला को विराजमान करने के लिए कोई न कोई भव्य मंदिर रहा है आक्रांताओं ने उस का बार-बार विध्वंस किया और बार-बार उस का पुनर्निर्माण किया गया।
मेरी माता जी भारत के मध्यकालोन इतिहास को इस वाक्य में बताती थीं वह मंदिर तोड़ते रहते थे, हम मंदिर बनाते रहते थे।% राजा गोविंददेव गढ़वाल द्वारा बनवाया हुआ 14-15 वीं शताब्दी की विशाल मंदिर मीर बाकी ने 16 वीं सदी के आरंभ में ध्वंस कर दिया। यह उस समय के हिंदुओं के लिए उतना ही हृदय विदारक रहा होगा, जितना यहूदियों के लिए ईसा की पहली शताब्दी में उनके सबसे बड़े आस्था स्थल पर सोलोमन के बनाए हुए मंदिर को ढाना। यहूदी कुछ कर नहीं पाए, रोते रहे। पर 16वीं शताब्दी में अयोध्या भूभाग के हिंदू मूक दर्शक नहीं रहे। उसी समय (1536 के आसपास) से लाखों हिंदू बीस साल तक युद्ध करते रहे और लाखों वीरगति को प्राप्त हुए।
धर्म की रक्षा शास्त्र और शस्त्र से होती है। शास्त्र की रक्षा के लिए भी शस्त्र चाहिए। इसीलिए सिख गुरू गोबिंद सिंह जी ने दो तलवारें पहनी मौरी और पीरी और शास्त्र रचना के साथ खालसा पंथ की भी स्थापना की। गुरूनानक देव जी, गुरू तेगबहादुर जी तथा गुरू गोविंद सिंह जी ने राम जन्मभूमि में जाकर पूजा अर्चना की और 'जय श्रीराम' बोला।
ब्रिटिश काल में पहली एफआईआर 1858 में निहंगों के खिलाफ हुई, जिन्होंने वहां अंदर जाकर हवन किया और जय श्रीराम की गूंज की कि वह स्वतंत्रता स्वतंत्रता नहीं, अगर देशवासी अपनी आस्थाभूमि पर अपने आराध्यदेव को विराजमान नहीं कर सकते। और पौष शुक्ल संवत 2080 (22 जनवरी, 2024) को भगवान राम के मूर्त रूप की प्राण प्रतिष्ठा का क्षण भारत की संस्कृति और सभ्यता की स्वतंत्रता और पुनरूत्थान का क्षण भी था।