पाकिस्तान के नापाक इरादों को समझे भारत

हमें जैसे भी हो, जम्मू-कश्मीर को सीमा पार के विषाक्त जिहादी माहौल से बचाकर रखना होगा....

Pratahkal    21-Sep-2023
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aalekh 
 
आर विक्रम सिंह... कश्मीर (kashmir) में अनंतनाग (Anantnag) के जम्मू- कोकेरनाग (Jammu- Kokernag) में आतंकियों से लंबी खिंची मुठभेड़ ने हमें यह मानने को मजबूर कर दिया है कि इस केंद्र शासित प्रदेश में बड़े पैमाने पर विकास के बाद भी स्थितियां अभी पूरी तरह नियंत्रण में नहीं आई हैं। यही प्रदर्शित करना पाकिस्तानी सत्ता और विशेष रूप से उसके डीप स्टेट की मंशा भी है। कोकेरनाग कोई सीमा क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह पाकिस्तान की सीमा से लगभग डेढ़-दो सौ किमी अंदर दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में है। आतंकियों को यहां आने के लिए सीमा के आगे पूरा राजौरी जिला पार करना पड़ा होगा।
 
जम्मू श्रीनगर हाइवे-44 के पश्चिम में 40 किमी और अंदर आने पर कोकेरनाग वन क्षेत्र प्रारंभ होता है। स्पष्ट है कि पाकिस्तान (pakisthan) की आतंकी संरचना और स्थानीय सहयोग बरकरार है। अनंतनाग में मुठभेड़ के बीच उड़ी सेक्टर में भी सीमा पार करने का प्रयास करते तीन आतंकी मारे गए। पिछले दस दिनों सीमा पार से घुसपैठ के कम से कम पांच प्रयास सुरक्षा बलों ने असफल किए हैं। इसका अर्थ है कि पाकिस्तान में आतंकियों के ट्रेनिंग कैंप और लांच पैड सक्रिय हैं।
 
पाकिस्तान जैसे-जैसे विदेशी सहायता के सहारे अपने आर्थिक संकट से निकलता दिख रहा है, वैसे-वैसे वह पहले की तरह कश्मीर को अशांत करने में जुट रहा है। खबरें हैं कि सीमाओं पर सख्ती के बाद आतंकियों के आने के नए रास्ते पंजाब और नेपाल से बन रहे हैं। पाकिस्तान हथियार और बारूद ड्रोन के माध्यम से भेज कर आतंकी गतिविधियों को जिंदा करने की कोशिश कर रहा है। वित्तीय व्यवस्था के लिए ड्रोन से ड्रग्स की तस्कारी आतंकी नेटवर्क का बड़ा सहारा है।
 
जी 20 (G 20) शिखर सम्मेलन से पहले भी आतंकियों की घुसपैठ के अनेक प्रयास हुए, लेकिन सीमा रक्षकों की सजगता ने कुछ होने नहीं दिया। इस बार आतंकी कोकेरनाग के जंगलों में अपना ठिकाना बनाने में सफल हो गए। एक और परिवर्तन ध्यान देने योग्य है। पीर पंजाल के पर्वतीय सीमांत और क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं। आतंकियों के निशाने पर अब सुरक्षा बल हैं। उनके लिए कश्मीर घाटी में ही हमला करना आवश्यक नहीं है। यह भी प्रतीत हो रहा है कि आतंकी संगठनों के नेटवर्क का विस्तार पहले जैसा ही है। सवाल समस्या के समाधान का है। आखिर कब तक यह सब चलने वाला है?
 
आजादी के आंदोलन के दौरान जिन्ना ने मजहब आधारित राष्ट्र पाकिस्तान का प्रस्ताव दिया। उनका कहना था कि हिंदू (Hindu) और मुसलमान (Muslim) दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। मूलतः इस विचार के प्रणेता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान थे। इस विचारतंत्र को अंग्रेजी सत्ता की बैसाखियां मिलीं। कांग्रेस इस पाकिस्तानी विचार के विरूद्ध कोई आंदोलन नहीं खड़ा कर सकी। इस तरह विश्व का पहला मजहब आधारित देश पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया। चूंकि महाराजा हरि सिंह का कश्मीर क्षेत्र मुस्लिम बहुल था, इसलिए वह पाकिस्तान का निशाना बना। जम्मू-कश्मीर का 86 हजार वर्ग किमी क्षेत्र पाकिस्तान के अवैध कब्जे में 1947-48 से चला आ रहा है।
 
यह यथास्थिति इसलिए है, क्योंकि हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी उसे बदलने का प्रयास नहीं किया। यह वह क्षेत्र है, जो अनायास हुए युद्धविराम के कारण भारत के पास आने से रह गया । वास्तव में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की कोई रूचि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने की नहीं थी । जब भी उन्हें पाकिस्तान से वार्ता का अवसर मिला, उन्होंने युद्धविराम रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव दिया। सिंधु जल समझौते के समय पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब ने और फिर 1963 में भारत-पाक वार्ताओं के दौरान भुट्टो ने भी यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया । उन्हें तो पूरा कश्मीर चाहिए था । भुट्टो ने भारतीय प्रतिनिधि स्वर्ण सिंह से कहा भी था कि अब बस युद्ध ही अंतिम विकल्प बचता है।
 
कश्मीर को पाकिस्तान अपने अस्तित्व की आधारभूत शर्त मानता है। भारत - पाकिस्तान की तरह जम्मू-कश्मीर को भी विभाजित करने की भारतीय नेताओं की मानसिकता ने समस्या के समाधान में भारतीय पक्ष को कमजोर ही किया । अहिंसा की कोख में पले नेताओं में रणनीतिक सोच, भूराजनीतिक ज्ञान और पाकिस्तान के मजहबी लक्ष्यों की समझ के अभाव ने हमारे नेतृत्व को कश्मीर समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकने का कोई अवसर ही नहीं दिया। वे कश्मीरियत की बात करते रहे और पाकिस्तान अपना आतंकी मजहबी नेटवर्क सशक्त करने में लगा रहा। हमने कश्मीर में आतंकवाद की समस्या के समाधान के लिए नया वैकल्पिक जमीनी नेतृत्व खड़ा करने के बजाय परिवारवादी नेताओं के भरोसे हवाई हल तलाशने में बड़ा समय बर्बाद किया। हमारी हर कोशिश तुष्टीकरण की चौखट पर आकर दम तोड़ देती रही।
 
इसमें संदेह नहीं है कि अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद जम्मू-कश्मीर में चतुर्दिक गुणात्मक परिवर्तन आया है। आतंकी गतिविधियों में 2016-19 की तुलना में 2019-22 132 प्रतिशत की कमी आई है। सुरक्षा बल अधिक सुरक्षित हुए हैं। उन्हें जन सहयोग भी बहुत मिल रहा है। इसके बाद भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मजहबी पाकिस्तान भविष्य में भी हमारे लिए कश्मीर संकट का कारण बना रहेगा। पाकिस्तान, जो ना ही मजहब के लिए है, से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह कभी पंथनिरपेक्षता को समझेगा। पाकिस्तान हमेशा कश्मीर को अपना लक्ष्य बनाए रखेगा। हमारी सबसे बड़ी समस्या पाकिस्तान के परमाणु हथियार हैं, जो कश्मीर समस्या के सैन्य समाधान के विकल्पों को सीमित कर देते हैं।
 
अफगानिस्तान में काबिज तालिबान एवं तहरीके तालिबान पाकिस्तान की सक्रियता, बलूचिस्तान की आंतरिक अस्थिरता, पाकिस्तान की आर्थिक स्थितियां और क्षेत्रीय इस्लामिक शक्ति संतुलन पर बहुत कुछ निर्भर है। इस संघर्ष में यदि पाकिस्तान का विखंडन हो जाता है तो कश्मीर ही नहीं, बहुत कुछ निपट जाएगा। कश्मीर इस बड़े और खतरनाक खेल में एक छोटा सा मोहरा है।
 
हमारा दायित्व है कि जैसे भी हो, कश्मीर को उस पार के विषाक्त जिहादी वातावरण से बचाए रख कर वहां सकारात्मक एवं विकासोन्मुख माहौल बनाए रखें। इस दिशा में निश्चय ही हमें कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद से आशातीत सफलताएं मिल रही हैं। कश्मीर विवाद हमें नेहरू जी विरासत में दे गए। नेहरू के बाद उनके वारिसों ने समाधान की कोशिश में हालात को बिगाड़ा ही। अब उसे सुधारना वर्तमान नेतृत्व के कंधों पर है।