पहले कौन की पहेली में उलझा विपक्ष

24 Mar 2023 17:52:31
 
उलझा विपक्ष
 
विजय त्रिवेदी 
 
मशहूर शायर निदा फाजली (Nida Fazli) का शेर है- दरिया हो या पहाड़ हो, टकराना चाहिए, जब तक न सांस टूटे, जिए जाना चाहिए। अपने राजनीतिक (Political) वर्चस्व की लड़ाई लड़ते गैर-भाजपा दलों को इस हौंसले की शायद इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत है। विपक्षी दलों की एकता का मौसम आ गया है, यह मेला जुटता दिख भी रहा है, लेकिन एकजुटता फिर भी नहीं बन पा रही। यह स्थिति तब है, जब चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।
 
साल 2019 के चुनावों का हिसाब- किताब देखें, तो कांग्रेस (Congress) ने 421 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर 52 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन 210 सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे और 148 पर उसके प्रत्याशी जमानत नहीं बचा पाए थे। अगर इसमें कांग्रेस बनाम भाजपा सीधे मुकाबले की बात करें, तो कांग्रेस पूरी तरह फ्लॉप रही थी। जिन 192 सीटों पर सीधा मुकाबला रहा, उनमें से केवल 16 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिल सकी थी, जबकि भाजपा (BJP) के खाते में 176 सीटें गई थीं। मगर इसका दूसरा पक्ष देखें, तो तस्वीर ज्यादा साफ दिख सकती है। साल 2019 में भाजपा ने 303 सीटें हासिल कीं, पर उसे वोट 37 फीसदी मिले, यानी पिछली बार गैर-भाजपा दलों के पास 63 फीसदी वोट रहे थे ।
 
कांग्रेस की जीती हुई सीटों में कुछ ऐसी हैं, जिन पर उसने उन पार्टियों को हराया था, जिनके साथ आज चलने की बात हो रही है। सबसे ज्यादा वाम दलों के 13 उम्मीदवारों को, तेलंगाना राष्ट्र समिति (National Committee) (अब भारत राष्ट्र समिति) के तीन प्रत्याशियों और जद (यू) को एक सीट पर कांग्रेस के हाथों हार मिली थी। इसके अलावा, जहां कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही, उनमें बीआरएस (BRS) ने आठ, शिवसेना ने सात और जद (यू) ने पांच सीटों पर उसे हराया था। साल 2019 में गैर- एनडीए (NDA) दलों का प्रदर्शन देखें, तो यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 19.49 प्रतिशत वोट और 52 सीटें मिली थीं। फिर, द्रमुक को 2.34 प्रतिशत वोटों के साथ 24 सीटें हासिल हुईं। शिवसेना (Shivsena) को वोट मिला 2.09 प्रतिशत और सीटें मिलीं 18 । जद (यू) को 1.45 फीसदी वोट के साथ 16 सीटें मिलीं। एनसीपी को वोट तो 1.39 प्रतिशत मिला, पर पांच सीटें मिलीं। अन्य छोटी पार्टियों को जोड़कर यूपीए के पास 30 फीसदी वोट और 110 सीटें थीं ।
 
अब चर्चा गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस की बात कहने वाले दलों की। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (Trinamool congress) को 4.06 फीसदी वोट के साथ 22 सीटें हासिल हुईं। फिर वाईएसआर कांग्रेस को 2.53 प्रतिशत वोट और 22 सीटें मिलीं। ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजद को 1.66 प्रतिशत वोट के साथ 12 सीटों पर जीत हासिल हुई। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में बसपा को 3.62 प्रतिशत वोट और 10 सीटें मिलीं, यहां समाजवादी पार्टी को 2.55 प्रतिशत वोट और पांच सीटें मिल पाईं। तेलंगाना (Telangana) में बीआरएस (BRS) को 1.25 प्रतिशत वोट और 9 सीटें हासिल हुईं। लेफ्ट को 2.73 प्रतिशत वोट के साथ 3 सीटें और तेलुगुदेशम को 2.04 प्रतिशत वोट और तीन सीटें मिलीं। एआईएमआईएम (AIMIM) को वोट भले ही 0.2 प्रतिशत मिले, लेकिन सीट दो मिल गई, और आम आदमी पार्टी को 0.44 प्रतिशत वोट और एक सीट मिली थी ।
 
इस तस्वीर का एक अन्य पक्ष भी है। अकेले किसी भी राजनीतिक दल का भाजपा (BJP) से मुकाबला विपक्ष के लिए हारी हुई बाजी साबित हो सकता है। साल 2019 में 80 सीटें ऐसी थीं, जिन पर कांग्रेस का मुकाबला गैर-भाजपा दलों से हुआ । इनमें उसे 36 सीटों पर जीत मिली। वहीं, भाजपा की बात करें, तो उसने 437 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 245 सीटों पर उसका मुकाबला गैर-कांग्रेसी दलों से हुआ और इनमें से उसने 137 सीटों पर जीत हासिल की। यहां भाजपा की 50 सीटों पर जमानत जब्त हो गई थी और देश के 11 राज्यों व दो केंद्रशासित (Union Territories) क्षेत्रों में वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी।
 
यह सच है, भाजपा आज नंबर वन पार्टी है। लगातार दूसरी पारी के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं दिख रही, पर यह मानना कि वर्ष 2024 में बदलाव की कोई संभावना नहीं है, उचित नहीं होगा। अगर इतिहास पर नजर डालें, तो 1977 के चुनाव से पहले कांग्रेस के पास 352 सीटें थीं और इंदिरा गांधी जैसा मजबूत नेतृत्व था, मगर उस चुनाव में यह पार्टी महज 154 सीटों पर सिमट गई और दूसरे राजनीतिक दलों से मिलकर बनी जनता पार्टी को 295 सीटें हासिल हुई थीं।
 
साल 1984 के तीस साल बाद केंद्र में भाजपा ने स्पष्ट बहुमत की सरकार (Government) बनाई, लेकिन यहां याद कर लेना उचित रहेगा कि जब कांग्रेस को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 414 सीटें मिलीं और युवा राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, तब भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिल पाई थीं, लेकिन लोकप्रिय प्रधानमंत्री (Prime Minister) राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) की अगुवाई में कांग्रेस अगले चुनाव, यानी 1989 में 197 सीटों पर सिमट गई और तब जनता दल ने 143 सीटों के बावजूद न केवल सरकार बनाई, बल्कि उसके नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) प्रधानमंत्री बने और दो विपरीत ध्रुव वाले दल भारतीय जनता पार्टी व वाम पार्टियों ने उनका साथ दिया। यानी सिर्फ चुनाव से पहले की एकजुटता के भरोसे अगली सरकार की संभावनाओं का हिसाब-किताब नहीं लगाया जा सकता। साल 2019 के चुनाव में विपक्षी एकता का पूरी तरह अभाव था और भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद विपक्षी एकता का सपना ही टूट गया।
 
इस बार विपक्षी दल विचारधारा के तौर पर भले ही एक साथ नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन केंद्रीय जांच एजेंसियों की पकड़ में आते विपक्षी नेताओं के डर ने उनको साथ आने पर मजबूर कर दिया है। उन्हें डर सता रहा है कि अगली बार भी यदि मोदी सरकार बनी, तो उनके लिए अस्तित्व बनाए रखना कठिन हो जाएगा। मगर विपक्षी एकता को लेकर 'पहले कौन आगे बढ़े' की पहेली भी चल रही है। राजद का कहना है कि कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा 200 सीटों पर चुनाव लड़े और करीब 350 सीटें क्षेत्रीय दलों के लिए छोड़ दे। जद (यू) के नेता कह रहे हैं कि छोटे दिल से बड़ा काम नहीं होता, तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि सिर्फ छत्तीसगढ़ और राजस्थान से ही दिल्ली की कुरसी नहीं मिल सकती। जाहिर है, लड़ाई लंबी है और मुश्किल भी। ऐसे वक्त में अटल बिहारी वाजपेयी की कविता को याद करके आगे बढ़ें, तो शायद रास्ता बन सकता है- हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा...।
Powered By Sangraha 9.0