आरक्षण की मांग का अर्थशास्त्र

आखिर आरक्षण का क्या विकल्प है ? रोजगार के ज्यादा मौके! बुनियादी समाधान यही है। नौकरियों में यदि समाज के हर तबके की हिस्सेदारी होने लगे, तो आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

Pratahkal    03-Nov-2023
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सुरजीत मजूमदार: मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) की मांग को लेकर महाराष्ट्र (Maharashtra) में उथल-पुथल मची हुई है। कुछ इसी तरह की तस्वीर हमने राजस्थान (Rajasthan), हरियाणा (Hariyana), गुजरात (Gujrat) जैसे राज्यों में भी देखी है, जहां जाट (Jat), गुर्जर (Gurjar), पाटीदार (Patidar) जैसी जातियां-जनजातियां अपने लिए आरक्षण की मांग करती रही हैं। क्या ऐसी मांगों की वजह सिर्फ सत्ता में हिस्सेदारी पाना है या इनका कोई आर्थिक-सामाजिक पक्ष भी है ? भारतीय संविधान में हम इसका जवाब खोज सकते हैं।
 
हमारा संविधान एक ऐसे समाज की कल्पना करता है, जिसमें आर्थिक और सामाजिक रूप से समानता हो । मगर वह यह मानकर भी चलता है कि अभी समाज में ऐसी परिस्थिति नहीं बन पाई है। इसके लिए संविधान निर्माताओं ने जो रास्ता ढूंढा, उसमें आरक्षण की भूमिका महसूस की गई। दरअसल, सामाजिक असमानता के कारण व्यवस्था में शिक्षा व रोजगार के जो थोड़े बेहतर अवसर होते हैं और जिनकी समाज के नियंत्रण में एक भूमिका होती है, उनमें सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व कम हो जाता है। अगर असमानता न हो, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि सरकारी नौकरियों या उच्च शिक्षा में ऊंची जाति के लोगों का ही बहुमत हो । आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया कि इन अवसरों में भी समानता आए और समाज के हर तबके को, खासकर जो पिछड़े हुए हैं, हिस्सेदारी मिले।
 
मगर, सामाजिक असमानता को आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह खत्म नहीं कर सकती। मिसाल के लिए, कुल रोजगार में सरकारी नौकरियों की हिस्सेदारी महज छह- सात फीसदी है, जबकि कुल जनसंख्या में पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी इससे कई गुना अधिक है। यानी, आरक्षण से उनकी समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो सकता, लेकिन इतना जरूर हो सकता है कि इन नौकरियों में उनकी भी कुछ हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सके। आरक्षण की जरूरत इसीलिए महसूस की जाती रही है। इससे सरकारी ढांचे के काम करने की व्यवस्था पर भी असर पड़ता है और उसमें अधिक समानता आती है।
 
हमारे समाज की एक कटु हकीकत यह भी है कि जो लोग आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, वे सामाजिक रूप से भी पीछे हैं, और जो वर्ग आर्थिक उन्नति कर चुका है, वह सामाजिक रूप से भी उन्नत है। हालांकि, आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मिलने वाले आरक्षण का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है। ऐसे में, आरक्षण की मांग का आर्थिक पहलू क्या है ? इसके लिए हमें आरक्षण आंदोलनों पर एक नजर डालनी होगी । शुरूआत में आरक्षण का मसला सिर्फ इस सवाल पर टिका था कि कौन इसके पक्ष में है व कौन विपक्ष में ? मंडल आयोग की सिफारिशों को जब लागू किया गया, तो आरक्षण के विरोध में व्यापक आंदोलन भी चला। मगर जैसे-जैसे इन समुदायों की राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में हिस्सेदारी बढ़ी, देश के राजनीतिक नजरिये में बदलाव आने लगा । अब अमूमन कोई आरक्षण का विरोध नहीं करता। इसकी एक वजह यह भी है कि जिस सामाजिक हकीकत के मद्देनजर इसकी व्यवस्था की गई थी, वह आज भी कायम है। नतीजतन, आरक्षण की जरूरत हमें आज भी पड़ रही है।
 
इन वर्षों में सामाजिक बदलाव भी तेजी से हुआ है। जब हम कहते हैं, अमुक जाति आर्थिक व सामाजिक रूप से समृद्ध थी, तब इसका आधार है, कृषि क्षेत्र में उनकी हैसियत । इसी हैसियत के कारण गांवों में जिन तबकों के पास जमीनें अधिक थीं और कृषि से कमाई थी, उनका स्थानीय राजनीतिक व सामाजिक प्रक्रियाओं में खासा प्रभाव था । मराठा, जाट, पटेल जैसे तमाम वर्ग इसी श्रेणी में आते हैं। ये समृद्ध थे, लेकिन उनकी संपन्नता कृषि - कर्म से जुड़ी थी। मगर समय के साथ अर्थव्यवस्था में बदलाव आया और पिछले तीन दशकों में कृषि क्षेत्र में संकट इस कदर बढ़ा कि उनकी समृद्धि घटती चली गई। एक समय बेशक ये वर्ग संपन्न रहे, लेकिन अब उनकी संपन्नता खत्म हो चुकी है, इसलिए उनमें भी आरक्षण की चाहत बढ़ने लगी है। वे खुद को पिछड़ा कहकर इसका लाभ लेना चाहते हैं। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी मांग जायज है, क्योंकि उनकी स्थिति में बेशक बदलाव आया है, लेकिन तब भी ऐसा नहीं है कि जिन वर्गों को आरक्षण की सुविधा दी गई है, उनसे उनकी स्थिति खराब है।
 
कृषि क्षेत्र में संकट का एक दुष्परिणाम यह भी निकला कि गैर-कृषि क्षेत्रों पर दबाव बढ़ गया और यहां भी आर्थिक और रोजगार के अवसर सीमित होने लगे। जिन नौकरियों में अच्छा वेतन मिलता है, वे अब काफी कम हो चुकी हैं। अनुमान है कि देश में 50 करोड़ कामगार रोजगार के क्षेत्र में हैं। इनमें से दो या तीन प्रतिशत ही हर महीने 40,000 से 50,000 रूपये वेतन कमा पाते हैं, ज्यादातर लोगों की तनख्वाह 15,000 रूपये से नीचे ही है। इसका यह अर्थ है कि कृषि क्षेत्र में संकट आने के बाद यदि इन वर्गों ने गैर-कृषि क्षेत्र की तरफ कदम बढ़ाए भी, तो उनको बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिला। इसीलिए हर समुदाय की यही इच्छा होती है कि सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के जो भी सीमित अवसर हैं, उनमें उनकी भी हिस्सेदारी हो और इसके लिए उनको आरक्षण की मांग करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखता। हालांकि, यह सही विकल्प नहीं है, क्योंकि उनकी मांग अगर मान भी ली गई, तो सरकारी क्षेत्र में घटते रोजगार के अवसरों में भला उनको कितनी नौकरी मिल सकेगी ?
 
ऐसा नहीं है कि उच्च शिक्षा या नौकरियों में वंचित तबकों की हिस्सेदारी नहीं बढ़ी है। मगर उनका जितना अनुपात होना चाहिए, उतना आज भी नहीं है। इतना ही नहीं, रोजगार और शिक्षा के निम्न स्तर पर तो उनकी संख्या दिखती है, लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते हैं, यह आंकड़ा तेजी से कम होने लगता है।
 
आखिर आरक्षण का क्या विकल्प है ? इसके लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे। बुनियादी समाधान तो यही है। नौकरियों में यदि समाज के हर तबके की हिस्सेदारी सुनिश्चित होने लगे, तो आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मगर दिक्कत यह है कि पुरानी असमानता के साथ-साथ नई असमानता भी पैदा हो रही है। सभी तबकों का समान विकास नहीं हो रहा। अलबत्ता, कुछ वर्गों की स्थिति और खराब हुई है। लिहाजा, जब तक इस असमानता को दूर नहीं किया जाएगा और रोजगार के व्यापक अवसर तैयार नहीं किए जाएंगे, आरक्षण का सवाल बना रहेगा।