राजनीतिक संस्कृति और आधी आबादी

यदि राजनीतिक संस्कृति में आ रही गिरावट पर लगाम नहीं लगी तो महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने के बावजूद हमारे लोकतंत्र का स्वरूप विकृत हो जाएगा....

Pratahkal    17-Nov-2023
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India's women in politics 
डा. एके वर्मा: राजनीति में महिलाओं को लेकर फिलहाल तीन मुद्दे चर्चा में हैं। विधायिका में महिलाओं को आरक्षण का संवैधानिक संशोधन, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा पैसे लेकर प्रश्न पूछने का प्रकरण और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा जनसंख्या नियंत्रण को लेकर विधानसभा में महिलाओं पर की गई अभद्र टिप्पणी । भारतीय समाज महिलाओं को लेकर संवेदनशील है। सार्वजनिक जीवन में जनता महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार को अपमानजनक एवं अस्वीकार्य पाती है। महिलाओं को 'आधी आबादी' कहा जाता है। राजनीति में उनकी प्रभावशीलता स्वयंसिद्ध है। तीन दशक वर्ष पूर्व 1992 में भारत दुनिया का पहला लोकतंत्र बना, जहां पंचायत और शहरी स्थानीय निकायों में सभी स्तरों एवं सभी पदों पर महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित किए गए। संसद के पिछले विशेष सत्र में संविधान के 106 वें संशोधन के माध्यम से नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 द्वारा महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में भी 33 प्रतिशत आरक्षण देने की स्वागतयोग्य पहल मोदी सरकार द्वारा की गई, जिसका सभी दलों ने समर्थन किया। महिलाओं से जुड़े ये तीनों मुद्दे वास्तव में भारतीय राजनीति की तीन प्रवृत्तियों को रेखांकित करते हैं।
 
विधायिका में आरक्षण महिला सशक्तीकरण की ओर इंगित करता है। सभी का मानना है कि सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक आदि अवरोधों के चलते महिलाओं का चुनाव लड़ना और सफल होना पुरूषों की अपेक्षा कठिन है । आरक्षण द्वारा राजनीतिक संस्थाओं में उनका 'स्पेस' सुरक्षित किया गया है। भारत में 14-15 प्रतिशत के मुकाबले वैश्विक स्तर पर जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं का औसत 24 प्रतिशत है, लेकिन नई पहल के माध्यम से भारत विश्व में प्रथम स्थान पर आने की स्थिति में आ गया है। यह सही है कि कुछ प्रक्रियात्मक बाध्यताओं के चलते इसे लागू होने में कुछ समय लगेगा, लेकिन इसका मूर्त रूप लेना अवश्यंभावी है। इस बीच एक सवाल यह भी है कि पंचायतों और निकायों में महिलाओं को मिले आरक्षण के तीस वर्ष बाद भी क्या महिलाएं स्वायत्त रूप में राजनीति कर पा रही हैं या उनके घर परिवार के पुरूष ही उनके नाम पर राजनीति कर रहे हैं ? ग्रामीण और शहरी स्तर पर तो यह चल गया, लेकिन विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर यह नहीं चलेगा। वहां हमें राजनीति के प्रति समर्पित योग्य एवं कुशल महिला राजनीतिज्ञ चाहिए। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को आगामी एक दशक के दौरान प्रत्येक विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र में कुछ महिलाओं को अभी से तैयार करना होगा ।
 
वर्ष 2026 के बाद होने वाली जनगणना और परिसीमन के बाद लोकसभा में करीब 200 सीटें बढ़ सकती हैं। वहीं, यदि लोकसभा की मौजूदा 543 सीटों पर ही 33 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाए तो 181 लोकसभा सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। इस कानून के अमल में आने से जहां लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी, वहीं उनके लिए सदन के भीतर अभिव्यक्तिमूलक, भाषाई और व्यवहारमूलक चुनौतियां भी बढ़ेंगी, क्योंकि अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार सांसद और अनुच्छेद 194 (2) के अनुसार विधायक को अपने-अपने सदन में 'कुछ भी कहने पर उसके विरूद्ध किसी भी न्यायालय में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। समाज मैं जिस प्रकार अपसंस्कृति का प्रसार हुआ है, उसने पुरूषों और महिलाओं दोनों के कार्य- कथन-चिंतन को कुप्रभावित किया है ।
 
इसलिए इस पर ध्यान देना होगा कि अनैतिक, गैर-कानूनी एवं राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लिप्त कोई भी जनप्रतिनिधि 'महिला - कवच' का प्रयोग कर कानून के शिकंजे से न बचने पाए। न ही किसी महिला सांसद या विधायक को किसी पुरूष सांसद या विधायक द्वारा अपमानित या आहत किया जा सके। इसके लिए समग्र राजनीतिक संस्कृति को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत होगी ।
 
जहां तक महुआ मोइत्रा प्रकरण की बात है तो वह यही संकेत करता है कि राजनीति में आने वाली महिलाओं का प्रयोग, उपयोग या दुरूपयोग राजनीतिक, औद्योगिक, व्यापारिक, समाज विरोधी एवं राष्ट्र विरोधी तत्व भी कर सकते हैं। गैरकानूनी काम करने पर संविधान स्त्री- पुरूष के आधार पर कोई भेद नहीं करता । महिलाएं भी अपराध करती हैं। उन्हें भी न्यायिक प्रक्रिया से गुजारना पड़ता है और न्यायिक तंत्र उन्हें दंडित भी करता है। ऐसे में, क्या किसी महिला को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह अपने विरूद्ध की जाने वाली जांच को महिला सम्मान विरोधी बताकर, 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' वाली कहावत चरितार्थ कर उसका बेजा लाभ लेने की कोशिश करे ? एथिक्स - समिति के समक्ष अपना पक्ष रखने के बजाय मोइत्रा ने समिति के अध्यक्ष पर ही आरोप लगा कर उसका बहिष्कार कर दिया। यह चिंता की बात है कि समिति के सदस्य दलीय आधार पर मोइत्रा के पक्ष-विपक्ष में विभाजित हुए और उसकी कार्यवाही सार्वजनिक की। जबकि संसदीय समितियां दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर काम करती हैं। नेताओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति में उनका वैयक्तिक जीवन भी सार्वजनिक हो जाता है।
 
नीतीश कुमार ने जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जिस भाषा और भाव-भंगिमा में महिलाओं की यौन शिक्षा पर वक्तव्य दिया गया, वह राजनीति में भाषाई मर्यादा और महिलाओं के प्रति असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा को इंगित करता है। जब किसी राज्य के मुखिया की भाषा, सोच और अभिव्यक्ति का ऐसा स्तर है तो उसके सहयोगियों की मानसिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस वक्तव्य के लिए नीतीश कुमार चाहे जितनी माफी मांगें, लेकिन महिलाओं के प्रति उनके अभद्र एवं अश्लील शब्द इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। वैसे, यह उदाहरण किसी एक नेता या दल पर ही लागू नहीं होता । यह बीमारी बेलगाम है । राजनीतिक संस्कृति में जो गिरावट पिछले 75 वर्षों में आई है, यदि राजनीतिक दलों ने उस पर लगाम लगाने का प्रयास नहीं किया तो महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने के बावजूद न केवल हमारे लोकतंत्र का स्वरूप विकृत हो जाएगा, अपितु लोकतंत्र में जनता की आस्था पर भी प्रश्नचिह्न लग सकता है।