लोकतंत्र के जातितंत्र में बदलने का खतरा

17 Nov 2023 20:00:00
aalekh 
 
डा. सुशील पांडेय आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में देखा गया, जो न केवल औपनिवेशिक शोषण को समाप्त कर सकती है, अपितु अपने नागरिकों को सामाजिक- आर्थिक रूप से सशक्त बनाकर एक महान राष्ट्र के स्वप्न को साकार कर सकती है। भारत का राष्ट्रीय आंदोलन ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध प्रतिक्रिया नहीं था, अपितु इसमें अपने नागरिकों के लिए एक आदर्श समाज स्थापित करने की कल्पना भी शामिल थी। स्वतंत्रता आंदोलन में अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान देने वाले महापुरूषों ने अपनी जाति और संकीर्ण हितों के लिए बलिदान नहीं दिया था। आज भारत एक विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है और अपने अमृतकाल में कई महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है। ऐसे अवसर पर कुछ नेता राजनीतिक स्वार्थ के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को भूलकर जाति की पहचान पर जोर दे रहे हैं। इससे लोकतंत्र (Democracy) के उद्देश्य धूमिल हो सकते हैं।
 
लोकतंत्र और जाति को एक-दूसरे का विरोधी माना जाता है, क्योंकि जाति असमानता और लोकतंत्र समानता के मूल्यों पर आधारित है। लोकतंत्र का उद्देश्य किसी व्यक्ति, जाति अथवा वर्ग का विकास नहीं है, अपितु समाज के कमजोर वर्गों को मुख्यधारा में शामिल करके समाज का सर्वांगीण विकास करना है। डा. आंबेडकर का मानना था कि लोकतंत्र और आधुनिक शिक्षा जातीय असमानता को समाप्त कर देंगे। भगत सिंह ने 'इंट्रोडक्शन टू ड्रीमलैंड' में लिखा था, स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति प्राप्त करना नहीं, अपितु जाति, पंथ और आर्थिक स्थिति के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य शोषण से मुक्त समाज बनाना भी है ।
 
भारत (India) में बढ़ते हुए राष्ट्रीय आंदोलन प्रभाव को कम करने के लिए अंग्रेजों ने 1909 में सबसे पहले मुसलमानों को पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान किया 1919 और 1935 के अधिनियम में कई अन्य जातियों को भी पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान किया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत निश्चित जाति और संप्रदाय के समूह राजनीतिक संस्थाओं के लिए अपने प्रतिनिधि चुनते थे। 1932 में सांप्रदायिक अधिनिर्णय के अंतर्गत दलित वर्ग को भी हिंदुओं से अलग माना गया और उन्हें पृथक निर्वाचन मंडल प्रदान किया गया महात्मा गांधी ने इस निर्णय के विरूद्ध आमरण अनशन किया और अंततः प्रसिद्ध पूना समझौता हुआ। आजादी के बाद भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किया और जाति और मजहब की विभाजनकारी पहचान को अस्वीकार कर दिया ।
 
देश की आजादी के बाद जाति जनगणना (Census) की मांग की गई, लेकिन देसी रियासतों के एकीकरण द्वारा राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे अस्वीकार कर दिया और इसे राष्ट्र की एकता में बाधा पहुंचने वाली प्रक्रिया माना । भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में जाति व्यवस्था पर आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए और जाति पहचान को समाप्त करने के लिए निरंतर प्रय% किए गए। केरल में श्री नारायण गुरू ने एक जाति, एक मानव का नारा दिया, वहीं डा. आंबेडकर ने जाति के उन्मूलन और समानता पर आधारित समाज का सपना देखा । आज भारत में जाति व्यवस्था के संदर्भ में दोहरी प्रवृत्ति सामने आ रही है। आधुनिक राजनीतिक न्यायिक परिवर्तनों, सामाजिक- आर्थिक सुधार, आधुनिक शिक्षा, आधुनिक व्यवसायों के विकास, शहरीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के विकास के कारण जाति व्यवस्था के स्वरूप में क्रांतिकारी बदलाव आया है। जाति के बंधन कमजोर हुएहैं, लेकिन राजनीतिक लाभ और अवसर प्राप्त करने के लिए विभिन्न जाति समूह तेजी से गोलबंद हो रहे हैं । जातियां राष्ट्रीय स्तर पर अपने संगठन बना रही हैं और आर्थिक, राजनीतिक लाभ के लिए सरकारों पर निरंतर दबाव बना रही हैं। राजनीति को लोक कल्याण का माध्यम न मानकर सत्ता प्राप्त करने का अवसर समझने वाले नेताओं ने जातियों को संगठित करना प्रारंभ कर दिया । जाति आधारित राजनीतिक दल बनने लगे और संकीर्ण हितों के लिए अन्य जातियों पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास प्रारंभ किया गया, इससे अन्य जातियों के लोग सक्रिय हुए। इससे लोकतंत्र के जाति तंत्र में बदलने का खतरा सामने आ गया।
 
आजादी के 75 वर्षों में भारत ने अपने नागरिकों के त्याग और अथक परिश्रम के बल पर अपनी वैश्विक पहचान बनाई है। आज भारत अपनी युवा शक्ति के बल पर विज्ञान, तकनीक, खेल, शिक्षा और अर्थव्यवस्था में नए कीर्तिमान बना रहा है। आज भारत की युवा पीढ़ी आधुनिक और वैश्विक दृष्टिकोण से प्रेरित है और राष्ट्रवाद उसके रग-रग में है।
 
लोकतंत्र में एक परिवार की तरह सभी का विकास और समान अवसर अनिवार्य शर्त होनी चाहिए। राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए सभी के सहयोग और सामथ्र्य की आवश्यकता होती है। समाज के वंचित वर्ग की उचित पहचान और उन्हें मुख्यधारा में लाने के उपाय को लागू करने की आवश्यकता है। समाज में वंचित वर्ग की पहचान जाति या मजहब के आधार पर न करके उनकी आवश्यकताओं और राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका के आधार पर की जानी चाहिए। जाति के आधार पर पहचान स्पष्ट करने से राष्ट्र निर्माण के सामने कई संकट सामने आएंगे। जातियों में आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और सभी जातियां अपनी संख्या बढ़ाने का निरंतर प्रयास प्रारंभ कर देगी। एक राष्ट्र के रूप में कई आंतरिक और बाह्य चुनौतियां पहले से ही मौजूद हैं, जाति पहचान पर जोर देने से संकट और गहरा हो जाएगा । जातीय पहचान पर जोर देने की मांग न सिर्फ राष्ट्र की प्रगति में बाधा है, अपितु स्वतंत्रता आंदोलन के सपनों और आदर्शों को चुनौती देने वाला कदम भी है। स्वतंत्रता संग्राम के नायकों को श्रद्धांजलि राष्ट्रीय मूल्यों और विरासत के आधार पर नए भारत के निर्माण द्वारा दिया जाना चाहिए। जनतंत्र में जाति नहीं, जन महत्वपूर्ण है । लोकतंत्र जाति तंत्र में न बदलने पाए।
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