चुनावी रियायतों की कीमत

चुनावी मौसम में राजनीतिक दल केवल वादों की परेड कराते हैं। नीतिगत सवालों की चिंता नेपथ्य में छोड़ दी जाती है। लेकिन इनकी कीमत आम मतदाता को चुकानी पड़ती है।

Pratahkal    12-Nov-2023
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Indian Election Promises
 
शंकर अय्यर: माओत्से तुंग की मशहूर उक्ति है, 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' लेकिन भारत के राजनीतिक परिदृश्य में सत्ता की चाबी चुनावी रियायतों में होती है। सत्ताओं द्वारा जनता के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करने का नया उपकरण नकद हस्तांतरण है। इन सर्दियों में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से चार अपेक्षाकृत कम औद्योगीकृत और ज्यादा आबादी वाले हैं। सभी राजनीतिक दल रोजगार, बिजली, सड़क, पानी और विकास की बात करते ही हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि अब चुनाव प्रतिस्पर्धी वादों, मुफ्त उपहारों और नकद हस्तांतरण की प्रतियोगिता बनकर रह गए हैं। महिला मतदाता इसमें गेम चेंजर बनकर उभरी हैं, जिन्हें आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दलों में लोक-लुभावन वादे करने की होड़ दिख रही है।
 
अब मध्य प्रदेश को ही लीजिए, जहां कांग्रेस द्वारा महिलाओं को डेढ़ हजार रूपये देने के वादे के बाद शिवराज चौहान सरकार ने लाड़ली बहना योजना के तहत नकद हस्तांतरण को एक हजार से बढ़ाकर डेढ़ हजार रूपये कर दिया है और इसे तीन हजार रूपये महीना तक बढ़ाने का वादा भी किया है। वहीं, राजस्थान की गहलोत सरकार ने महिलाओं को दस हजार रूपये सालाना भत्ता देने का वादा किया है। तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव ने पात्र परिवारों की महिलाओं को तीन हजार रूपये प्रति माह देने का वायदा किया है। मतदाताओं को लुभाने की एक टॉप-अप रणनीति भी है। इसके तहत केंद्र सरकार द्वारा पहले से चलाई जा रही योजनाओं को राज्यों द्वारा पैसा उपलब्ध कराया जाता है। भारत में कृषि में लगी हुई 45 फीसदी से ज्यादा आबादी भी, जो राष्ट्रीय आय के छठे हिस्से पर जीवन-यापन करने को मजबूर है, राजनीतिक दलों के लिए एक निर्वाचन क्षेत्र है, जहां के मतदाताओं को लुभाना राजनीतिक दल अपना कर्तव्य समझते हैं। 2018 में तेलंगाना और ओडिशा ने रायथु बंधु और कालिया नामक योजनाओं के तहत किसानों की आय बढ़ाने के प्रयास किए। इस विचार को राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तौर पर अपनाया गया, जिससे किसानों को छह हजार रूपये मिलते हैं। आंकड़ों से मुआवजा बढ़ाने की राजनीतिक मजबूरी स्पष्ट होती है। 15 से ज्यादा राज्यों के आधे से ज्यादा परिवार कृषि पर निर्भर हैं। कांग्रेस ने रायथु बंधु भुगतान को 15 हजार तक बढ़ाने का और खेतिहर मजदूरों के लिए 12 हजार रूपये देने का वादा किया । अब केसीआर कहां पीछे रहने वाले थी ? उसने रायथु बंधु भुगतान को बढ़ाकर 16 हजार रूपये वार्षिक कर दिया। महाराष्ट्र में भी पात्र किसानों को 6 हजार रूपये का अतिरिक्त भुगतान करने के लिए नमो शेतकारी महासम्मान नामक एक टॉप-अप योजना शुरू की गई है।
 
गौरतलब है कि राष्ट्रीय भुगतान निगम पोर्टल पर राज्यों द्वारा सात हजार से अधिक कोड के रजिस्ट्रेशन के साथ नकद हस्तांतरण का विस्तार दिखता है। इसमें उन योजनाओं के लिए भुगतान शामिल है, जो केंद्र द्वारा शुरू, लेकिन राज्यों द्वारा प्रशासित होती हैं। इसके अलावा, राज्यों द्वारा अतिरिक्त सब्सिडी वाली केंद्र की योजनाएं और राज्यों द्वारा शुरू की गई योजनाएं भी शामिल हैं। इस वर्ष की शुरूआत में केंद्र सरकार ने रसोई गैस की कीमतों में 200 रूपये की कटौती की थी। चुनावी राज्यों में में भी रसोई गैस सिलिंडर पर सब्सिडी बढ़ाई गई है। राजस्थान, तेलंगाना और मध्य प्रदेश में सिलिंडर क्रमश: 500, 400 और 450 रूपये में दिए जा रहे हैं।
 
मई 2023 में मध्य प्रदेश सरकार ने किसानों द्वारा सहकारी समितियों से लिए गए ऋण पर ब्याज माफ करने का फैसला किया था । राज्य सरकार ने क्रेडिट सोसाइटियों के लिए गए दो लाख रूपये तक के ऋण पर देय ब्याज का भुगतान करने का वादा भी किया। इस योजना से करीब 11 लाख से ज्यादा किसानों को राहत मिलने की उम्मीद थी जुलाई में कांग्रेस ने वादा किया कि अगर वह सत्ता में आती है, तो अपने कार्यकाल के दौरान घोषित ऋण माफी को फिर से शुरू करेगी। आश्चर्य है कि राजनीतिक दल जो वादे करते हैं, उनकी क्या लागत होगी, इस पर विचार करने की वे जरूरत भी नहीं समझते। चुनावी वादों को पूरा करने की चुनौती राज्यों के बजट में झलकती है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक को चुनाव से पहले जारी अपनी एक गारंटी के लिए 52 हजार करोड़ रूपये अलग से रखने पड़े। हालांकि राजनीतिक दलों को इसकी चिंता नहीं दिखती। खर्च करने की इच्छा और खर्च में बढ़ोतरी शायद वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) के संग्रह में लगातार वृद्धि से हुई है । वार्षिक जीएसटी राजस्व संग्रह 2017-18 के 7.18 लाख करोड़ रूपये से बढ़कर 2022-23 में 18.10 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा हो गया है। 2023-24 की पहली छमाही के लिए संग्रह 11 फीसदी बढ़कर 9.92 लाख करोड़ रूपये हो गया है, जो औसतन लगभग 1.6 लाख करोड़ रूपये प्रति माह है।
 
दरअसल, इस साल की पहली छमाही में राज्यों का जीएसटी राजस्व 2022-23 के 3.68 लाख करोड़ रूपये के मुकाबले 4.22 लाख करोड़ रूपये रहा। धन के लिए दूसरा रास्ता राज्यों द्वारा ईंधन पर लगाया जाने वाला कर है, जिससे राज्यों ने पिछले साल 3.2 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का संग्रह किया । अब यह समझने वाली बात है कि इन मुफ्त की रियायतों की भी कीमत होती है। इनकी लागत ज्यादा कर लगाकर पूरी की जाती है, जिसे मतदाताओं को जीएसटी या ईंधन की कीमतों के रूप में या अतरिक्त उधार के रूप में भुगतान करना पड़ता है, जिससे महंगाई और ब्याज दरें बढ़ती हैं। इससे आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति में कमी आती है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पुलिस में व्यापक रिक्तियां इसका प्रमाण हैं। राज्य सरकारों का गैर-विकास व्यय 2020-21 के 10.63 लाख करोड़ रूपये से बढ़कर 14. 18 लाख करोड़ रूपये से अधिक हो गया है।
 
चुनावी रियायतें दरअसल राजनीतिक पैरासिटामोल की तरह होती हैं। नकद हस्तांतरण और रियायतों की कीमत अर्थव्यवस्था के बुनियादी मुद्दे चुकाते हैं, जिससे आजीविका प्रभावित होती है। कृषि को सशक्त बनाने, भूमि व श्रम कानूनों में सुधार जैसे विषयों पर एक गहरी चुप्पी दिखती है। भारत की जीडीपी विभिन्न राज्यों की वृद्धि का योग ही है। लेकिन, आर्थिक मुद्दों पर राज्यों से शायद ही सवाल पूछे जाते हों । चुनावी मौसम में राजनीतिक दल केवल वादों की परेड कराते हैं । नीतिगत सवालों की चिंता नेपथ्य में छोड़ दी जाती है।