ओझल होते आरक्षण के मूल उद्देश्य

यह आश्चर्यजनक है कि आज तक आरक्षण के परिणामों का कोई अध्ययन या सर्वेक्षण किसी स्तर पर नहीं किया गया.....

Pratahkal    22-Oct-2023
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aalekh 
 
शंकर शरण बिहार (Bihar) में जातिगत गणना (caste census) के आंकड़े सामने आने के साथ ही आरक्षण बढ़ाने की मांग होने लगी है। आरक्षण को लेकर आ रहे बयानों से यही झलकता है कि अब आरक्षण के उद्देश्य पर कोई विवेक विचार नहीं रह गया है। वर्षों पहले जब आरक्षण का प्रविधान अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए किया गया था, तो आज जैसी स्थिति नहीं थी । तब न केवल आरक्षण का उद्देश्य स्पष्ट था, बल्कि उसकी अवधि भी सीमित रखी गई थी। डा. आंबेडकर (Dr. Ambedkar) ने आरक्षण की व्यवस्था केवल दस वर्ष के लिए की थी, क्योंकि वह शीघ्र ही सबके लिए समान व्यवस्था चाहते थे । कुछ को सदा के लिए स्थायी विशेषाधिकार देना उनका उद्देश्य न था, पर सात दशक बाद भी न केवल मूल आरक्षण जारी है, बल्कि नए-नए समूहों और रूपों में आरक्षण बढ़ता गया है । आरक्षण के परिणामों का कोई अध्ययन, सर्वेक्षण आज तक किसी स्तर पर नहीं किया गया। इससे भी स्पष्ट है कि आरक्षण के मूल उद्देश्य भुलाए जा चुके हैं। सारा मामला बदल कर संसाधनों, पदों की छीना-झपटी का गया है।
 
हमारे नेता और नीतिकार यह बखूबी समझ चुके हैं कि आरक्षण ऐसी नीति हो गई है, जिसके घोषित लक्ष्य पाना असंभव दिखता है। एक बड़े नेता 'कला और संस्कृति' में भी आरक्षण की चाह जता चुके हैं। आगे खेल-कूद, सिनेमा आदि में भी आरक्षण की मांग हो सकती है। तब जैसे खिलाड़ी, संगीतकार, पटकथा लेखक आदि बनेंगे, अभी वैसे ही हजारों विधायक, प्रोफेसर, शैक्षिक संस्थान प्रमुख आदि बने हुए हैं। यह दुर्दशा दिखती नहीं तो इसीलिए, क्योंकि राजनीतिक वर्ग ने वास्तविक काम और गुणवत्ता की चिंता ही छोड़ दी है। उसका सारा ध्यान मुख्यतः दलीय प्रतिस्पर्द्धा और सत्ता पर रहता है । किसी भी तरह का आरक्षण प्रायः किसी अधिक योग्य को वंचित करता है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन (Sumitra Mahajan) ने कहा था कि 70 साल बाद भी आरक्षण (reservation) जारी रखकर हम सामाजिक झगड़ा बढ़ा रहे हैं। यह झगड़ा केवल सत्ता - दखल की लड़ाई हेतु उपयोगी समझा जाता है। नए-नए आरक्षण प्रस्ताव उसी के लिए आते हैं। उसका समाज हित से कोई संबंध नहीं है। कोई न्याय दर्शन और सामान्य बुद्धि यह नहीं कहती कि किसी को इसलिए वंचित करें, क्योंकि सदियों पहले उसके पूर्वजों ने दूसरों को वंचित किया होगा । एक तो किसी को 'पूर्वजों के जुर्मों' की सजा देना अनुचित है। दूसरे, उन पूर्वजों ने कोई जुर्म किए, यह मान्यता भी बस थोप दी गई है। न इसका परीक्षण हुआ, न प्रमाण है। शायद इसीलिए इस मान्यता का परीक्षण नहीं किया जाता। अब आरक्षण केवल राजनीतिक हथियार बन चुका है। इसमें सभी दल लिप्त हैं । इसीलिए जब कभी न्यायपालिका किसी आरक्षण को कुछ सुधारती भी है, तो संविधान संशोधन कर उसे पलट दिया जाता है। अब तक कम से कम सात बार यह हो चुका हैं। ध्यान दें कि एक बार भी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता की गारंटी के लिए कोई विधेयक नहीं आया। यह स्पष्ट है कि देश में सभी के लिए 'समान अवसर' बनाना हमारे नेताओं की प्राथमिकता ही नहीं है। भारत (India) में हर कहीं अंग्रेजी का वर्चस्व होना सबसे बड़ी विषमता और भेदभाव है, जिससे देश के हर कोने में, हर समूह के असंख्य लोग उपेक्षित होते हैं। दूसरी ओर सत्ता राजनीति के लोभ से ईसाई और मुस्लिम समूहों को भी जातिगत आरक्षण का लाभ मिल रहा है, जिनका मजहब जाति जैसी चीज मानता भी नहीं।अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष तरलोचन सिंह के अनुसार, 58 जातियों और 14 जनजातियों में मुसलमानों को भी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। यानी एक और हिंदू समाज को 'जाति' के लिए रोज लांछित करना और दूसरी ओर 'जाति विहीन' समुदायों को भी जाति आरक्षण देना, यह दोहरापन नेताओं की लोभी मानसिकता से चल रहा है । सारा विमर्श किसी न किसी तरह की अलगाववादी पहचान को बढ़ाने के लिए होता है। जो भी जाति-मजहब भेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय, सामाजिक विमर्श और नीति-निर्माण की बात करता है, उसे गालियां दी जाती हैं। यह देश के लिए घातक है। भारत अन्य देशों के सामने मानसिक और बौद्धिक रूप से कमजोर बन रहा है। राजकीय तंत्र की भूमिका और आकार तो बढ़ते गए, किंतु योग्यता की परवाह न रही यदि महत्वपूर्ण स्थानों पर आधे लोग भी योग्यता को पीछे कर अन्य विविध कारणों से नियुक्त हो रहे हैं तो यह संपूर्ण राज्य तंत्र को अक्षम करेगा । इस प्रकार 70 साल पहले अपवाद मान कर शुरू की गई पहल आज नियम को ही बर्बाद कर चुकी है। अब आरक्षण को समयबद्ध करके दुर्बलों की सहायता के वैकल्पिक उपाय करना ही श्रेयस्कर है, ताकि वे भी सक्षम बन सकें दुर्बल समूहों को योग्य बनाने के लिए सुविधाएं दी जानी चाहिए। कुपोषण ग्रस्त को विशेष भोजन और शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसी तरह उन्हें अध्ययन - प्रशिक्षण के लिए रियायती या मुफ्त शिक्षा जानी चाहिए। कोई परिवार अपने बच्चों के सहयोग के बिना जीविकोपार्जन में कठिनाई महसूस करे तो उसे आर्थिक सहायता दी जाए, जिससे वे बच्चों को भलीभांति पढ़ा सकें। जब काम, परीक्षण और प्रतियोगिता का समय आए तो सभी स्थानों पर योग्यता को ही पैमाना माना जाए। यही सकारात्म कार्रवाई होगी। आज यह कोई नहीं कहता कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त जातियों की स्थिति सात दशक पहले से बदतर है। आज जब आरक्षित वर्ग के लोग सभी सत्ता निकाय, सर्वोच्च पदों और राष्ट्रीय, राजकीय संस्थानों में उपस्थित हैं, तब भी विशेष अधिकारों का जारी रहना सबके लिए हानिकारक है । हर हाल में, नए-नए आरक्षण घातक ही सिद्ध होंगे। सभी नेताओं को मिलकर पुराने आरक्षणों को एक समय-सीमा में बांध देना चाहिए और देश की सभी प्रतिभाओं को अपना समझकर विचार करना चाहिए । नेताओं को यह सोचना चाहिए कि भारत के युवा चाहे वे किसी भी जाति - समुदाय से हों और कितने भी कम शिक्षित अथवा हों, बाहर देशों में जाकर विभिन्न मोर्चों पर बड़ी सफलताएं प्राप्त करते हैं । अमेरिका, यूरोप या अरब में उन्हें कोई आरक्षण नहीं है, फिर भी वे अपनी जगह बना लेते हैं। तब देश में ही उन्हें तरह- तरह से बैसाखी देना अंतत: सभी समुदायों की हानि है ।